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पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, संभोगपच्चक्खाणेणं-संभोग के प्रत्याख्यान से, जीवे-जीव, किं जणयइ-किस गुण की उपार्जना करता है, संभोगपच्चक्खाणेणं-संभोग के प्रत्याख्यान से, आलंबणाई-परालम्बन का, खवेइ-क्षय कर देता है, य-फिर, निरालंबणस्स-स्वावलम्बी जीव के, जोगा-योग मन, वचन और काय का व्यापार, आयट्ठिया-मोक्षैकप्रयोजन वाले, भवंति-होते हैं, सएणं-अपने, लाभेणं-लाभ में, संतुस्सइ-संतुष्ट रहता है, परलाभं-पर के लाभ का, नो आसादेइ-आस्वादन नहीं करता, नो तक्केइ-तर्कणा नहीं करता, नो पीहेइ-स्पृहा नहीं करता, नो पत्थेइ-प्रार्थना नहीं करता, नो अभिलसइ-अभिलाषा नहीं करता, परलाभं-पर के लाभ का, अणस्साएमाणे-आस्वादन न करता हुआ, अतक्केमाणे-तर्कणा न करता हुआ, अपीहेमाणे-स्पृहा न करता हुआ, अपत्थेमाणे-प्रार्थना न करता हुआ, अणभिलसमाणे-अभिलाषा न करता हुआ, दुच्चं-दूसरी, सुहसेज्ज-सुखशय्या को, उवसंपज्जित्ता णं-अंगीकार करके, विहरइ-विचरता है।
मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! संभोग के प्रत्याख्यान से जीव किस गुण को प्राप्त करता है?
उत्तर-संभोग के प्रत्याख्यान से जीव का परावलम्बीपन छूट जाता है और वह स्वावलम्बी हो जाता है। स्वावलम्बी होने से उसकी सभी प्रवृत्तियां केवल मोक्षार्थ हो जाती हैं, वह अपने लाभ में सन्तुष्ट रहता है। पर के लाभ का आस्वादन-उपभोग नहीं करता, कल्पना नहीं करता, इच्छा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता और अभिलाषा नहीं करता है। इस प्रकार पर के लाभ का आस्वादन, कल्पना, स्पृहा, प्रार्थना और अभिलाषा न करता हुआ वह जीव दूसरी सुखशय्या को अंगीकार करके विचरण करता है।
टीका-इस सूत्र में संभोग-प्रत्याख्यांन के फल का वर्णन किया है। संभोग के प्रत्याख्यान से इस जीव का परावलम्बीपन दूर होकर उसको स्वावलम्बन की प्राप्ति होती है। स्वावलम्बी होने पर उसकी मन,
पौर काया की प्रवत्ति का मख्य प्रयोजन संयम की आराधना और मोक्ष की प्राप्ति ही होता है। फिर वह यथा-लाभ में सन्तुष्ट रहता है। किसी के लाभ की वह न तो इच्छा करता है, न कल्पना, न प्रार्थना और न ही अभिलाषा करता है।
यद्यपि इन शब्दों के अर्थ में कोई भेद नहीं है तथापि विभिन्न देशीय शिष्यों के सुबोधार्थ इनका प्रयोग किया गया है, अर्थात् अनेक शब्दों की योजना की गई है।
सुख-शय्या वही है जो कि स्थानांग-सूत्र में चार प्रकार की वर्णन की गई है। अपने लाभ में सन्तुष्ट रहना और पर-लाभ की मन में कल्पना तक न करना आदि जो कुछ ऊपर बताया गया है वही दूसरी सुख-शय्या कही जाती है।
- इसके अतिरिक्त संभोग का अर्थ है-अनेक साधुओं के द्वारा एकत्रित किए गए भोजन को मंडलीबद्ध बैठकर खाना, अर्थात् समुदाय में बैठकर आहार करना, उसका प्रत्याख्यान-त्याग करना संभोगप्रत्याख्यान है। जब जिनकल्प का ग्रहण किया जाता है, तब संभोग का प्रत्याख्यान करके जिनकल्पी साधु उद्यतविहारी, स्वावलम्बी होकर विचरता है और वीर्याचार में सदा उद्यत रहता है। परन्तु इतना स्मरण रहे कि इस प्रकार का त्याग गीतार्थ-अवस्था में ही करना चाहिए, अन्य क्रोधादि अवस्था
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१३३] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं