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मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! योग के प्रत्याख्यान से जीव किस गुण को प्राप्त करता है?
उत्तर-हे भद्र ! योग का प्रत्याख्यान करने से जीव अयोगी अर्थात् मन, वचन, काया की प्रवृत्ति से रहित हो जाता है और अयोगी हुआ जीव नवीन कर्मों का बन्ध नहीं करता तथा पूर्व में संचित किए हुए कर्मों की निर्जरा (नाश) कर देता है। ____टीका-मन, वचन और शरीर के व्यापार (प्रवृत्ति) का नाम योग है। वह प्रशस्त और अप्रशस्त भेद से दो प्रकार का है। उक्त योग का निरोध करने से इस जीव को किस फल की प्राप्ति होती है?' यह शिष्य का प्रश्न है। इसके उत्तर में गुरु कहते हैं कि योग के प्रत्याख्यान से जीव मन, वचन और शरीर की शुभाशुभ प्रवृत्ति से रहित हो जाता है। मन, वचन और शरीर के व्यापार से रहित होने वाला जीव अयोगी कहलाता है। इस प्रकार योगों के निरोध से वह जीव नवीन कर्मों का बन्ध नहीं करता, क्योंकि कर्मबन्ध में हेतुभूत मन, वचन और काया का व्यापार है, इनका निरोध कर लेने से फिर कर्म का बन्ध नहीं हो सकता और पूर्व में बांधे हुए नाम, गोत्र और वेदनीय आदि कर्मों का वह क्षय कर डालता है, यही योग-प्रत्याख्यान का फल है। परन्तु यह सब कथन चौदहवें गुणस्थान की अपेक्षा से जानना चाहिए। दूसरे गुणस्थानों में तो अनेक प्रकार के ध्यानों का वर्णन किया गया है जो कि योग के बिना नहीं हो सकते। इसलिए अयोगी आत्मा ही चार प्रकार के अघाती कर्मों का क्षय करके मोक्षपद को प्राप्त कर सकती है।
अब शरीर-प्रत्याख्यान के विषय में कहते हैं - सरीरपच्चक्खाणेणं भंते । जीवे किं जणयइ ?
सरीरपच्चक्खाणेणं सिद्धाइसयगुणत्तणं निव्वत्तेइ, सिद्धाइसयगुणसंपन्ने य णं जीवे लोगग्गभावमुवगए परमसुही भवइ ॥ ३८ ॥
शरीरप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
शरीरप्रत्याख्यानेन सिद्धातिशयगुणत्वं निवर्तयति। सिद्धातिशयगुणसम्पन्नश्च जीवो लोकाग्रभावमुपगतः परमसुखी भवति ॥ ३८ ॥
पदार्थान्वयः-भते-हे भगवन्, सरीरपच्चक्खाणेणं-शरीर के प्रत्याख्यान से, जीवे-जीव, किं जणयइ-किस गुण की प्राप्ति करता है, सरीरपच्चक्खाणेणं-शरीर के प्रत्याख्यान से, सिद्धाइसयगुणत्तणं-सिद्ध के अतिशय गुणभाव को, निव्वत्तेइ-प्राप्त करता है, य-फिर, सिद्धाइसयगुणसंपन्ने-सिद्ध के अतिशय गुण को प्राप्त हुआ, जीवे-जीव, लोगग्गभावं-लोक के अप्रभाव को, उवगए-प्राप्त होकर, परमसुही-परम सुखी, भवइ-हो जाता है।
मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! शरीर के प्रत्याख्यान से जीव किस गुण का उपार्जन करता है?
उत्तर-शरीर के प्रत्याख्यान-त्याग करने से जीव सिद्धों के अतिशयरूप गुण की प्राप्ति कर लेता है तथा सिद्धों के अतिशय गुणभाव को प्राप्त होकर वह लोक के अग्रभाग में पहुंचकर परमसुख को प्राप्त करता है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१३७] सम्पत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं