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उत्तर-श्रुत की आराधना से साधक अज्ञान का नाश करता है और क्लेश को प्राप्त नहीं होता है।
टीका-श्रुत अर्थात् सूत्र-सिद्धान्त की आराधना से अथवा श्रुत का भली-भांति मनन करने से अज्ञान का नाश होता है, क्योंकि श्रुत-जन्य विशिष्ट बोध अज्ञान का नाशक होता है, तथा अज्ञान के नाश होने से राग-द्वेष-जन्य जो आन्तरिक क्लेश है, वह भी दूर हो जाता है। इसलिए श्रुत की आराधना से अज्ञान और तज्जन्य क्लेश भी शान्त हो जाते हैं तथा श्रुतसेवी मुनि के सद्भावपूर्ण चित्त में अपूर्व आनन्द-संवेग और विशिष्ट श्रद्धा की उत्पत्ति होने लगती है। अब मन की एकाग्रता के विषय में कहते हैं -
एगग्गमण-संनिवेसणयाएणं भंते ! जीवे किं जणयह ? एगग्गमण-संनिवेसणयाएणं चित्तनिरोहं करेइ ॥ २५ ॥ ___ एकाग्रमनःसंनिवेशनया भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
एकाग्रमनःसंनिवेशनया चित्तनिरोधं करोति ॥ २५ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, एगग्गमणसंनिवेसणयाएणं-एकाग्रमन-सन्निवेशना से, जीवे-जीव, किं जणयइ-किस गुण की प्राप्ति करता है, एगग्गमणसंनिवेसणयाएणं-मन की एकाग्रता से चित्तनिरोह-चित्त का निरोध, करेइ-करता है।
मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! एकाग्रमनःसंनिवेश अर्थात्. मन को एकाग्र करने से इस जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है?
उत्तर-मन की एकाग्रता से चित्त का निरोध होता है।
टीका-प्रस्तुत गाथा में मन की एकाग्रता से उत्पन्न होने वाले फल का वर्णन किया गया है। शिष्य पूछता है कि भगवन् ! यदि किसी शुभ आलम्बन के द्वारा मन को एकाग्र किया जाए तो ऐसा करने वाले जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है? उत्तर में गुरु कहते हैं कि-भद्र ! यदि उक्त प्रकार से मन को एकाग्र किया जाए तो इधर-उधर दौड़ने वाली जो चित्तवृत्तियां हैं उनका निरोध हो जाता है, तात्पर्य यह है कि यह अति चंचल मन उसके वश में हो जाता है। यद्यपि सूत्र में केवल 'एकाग्र' पद ही दिया गया है, तथापि प्रस्ताव से शुभ आलम्बन का ही ग्रहण किया जाता है। यदि शुभ आलम्बन का ग्रहण न किया जाए तो आर्त और रौद्र ध्यान में भी मन की स्थिति एकाग्र हो सकती है इसलिए आर्त-रौद्र ध्यान को छोड़कर केवल धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान में ही किसी शुभ आलम्बन के द्वारा मन की एकाग्रता शास्त्रकार को सम्मत है। उसी से चित्तवृत्ति का निरोध होना अभीष्ट है। यदि दूसरे शब्दों में कहें तो प्रस्तुत गाथा में द्रव्यप्राणायाम और भावप्राणायाम का स्पष्ट वर्णन दिखाई देता है क्योंकि मन और वायु के निरोध से मन की एकाग्रता हो जाती है। उसका फल चित्त का सर्वथा निरोध है, इसीलिए पातञ्जल योगदर्शन में 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' [यो. १-१-२] कहा गया है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १२६] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं