________________
अतिचारों से रहित हो जाता है। इतना ही नहीं, किन्तु शुद्ध मन से प्रायश्चित्त को ग्रहण करता हुआ जीव कल्याण के मार्ग और उसके फल को भी विशुद्ध कर लेता है, अर्थात् सम्यक्त्व और उसके फलरूप ज्ञान को निर्मल कर लेता है तथा चारित्र और उसके फल मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
पहले अट्ठाइसवें अध्ययन में कह आए हैं कि सबसे पहले दर्शन होता है, तथा चारित्र-प्राप्ति निबन्धन होने से दर्शन और ज्ञान ही उसका फल है, अतः ज्ञानाचारादि का फल मोक्ष कहा गया है। अथवा "मार्ग" शब्द से मुक्तिमार्ग का ग्रहण करना चाहिए और क्षायोपशमिक दर्शनादि उस मार्ग के फल हैं। जब वे प्रकर्ष दशा को प्राप्त हुए क्षायिक भाव को प्राप्त होते हैं, तब उनका फल मुक्ति है। इसलिए विशोधना और आराधना के द्वारा सर्वदा निरतिचार संयम का ही पालन करना चाहिए, जिसका कि फल मोक्ष-पद की प्राप्ति है।
खमावणयाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
खमावणयाएणं पल्हायणभावं जणयइ। पल्हायणभावमुवगए य सव्वपाण-भूय-जीव-सत्तेसु मित्तीभावमुप्पाएइ। मित्तीभावमुवगए यावि जीवे भाव-विसोहिं काऊण निब्भए भवइ ॥ १७ ॥
क्षमापनया भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
क्षमापनया प्रह्लादनभावं जनयति। प्रह्लादनभावमुपगतश्च सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वेषु मैत्रीभावमुपगतश्चापि जीवः भावविशुद्धिं कृत्वा निर्भयो भवति ॥ १७ ॥
पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन् ! खमावणयाएणं-क्षमापना से, जीव-जीव, किं जणयइ-क्या फल प्राप्त करता है, खमावणयाएणं-क्षमापना से, पल्हायणभावं-प्रह्लादनभाव अर्थात् चित्त की प्रसन्नता को, जणयइ-प्राप्त करता है, पल्हायणभावं-चित्त-प्रसन्नता को, उवगए-प्राप्त हुआ, सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु-सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्वों में, मित्तीभावं-मैत्रीभाव को, उप्पाएइ-उत्पन्न करता है, य-फिर, मित्तीभावं-मैत्रीभाव को, उवगए-प्राप्त हुआ, जीवे-जीव, भावविसोहिं-भावविशुद्धि, काऊण-करके, निब्भए-निर्भय, भवइ-हो जाता है।
मूलार्थ-(प्रश्नः)-हे भगवन् ! क्षमापना से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है? . उत्तर-हे शिष्य ! क्षमापना से प्रह्लादनभाव अर्थात् चित्त की प्रसन्नता की प्राप्ति होती है, चित्त-प्रसन्नता की प्राप्ति से सर्व-प्राण-भत-जीव और सत्त्व आदि में मैत्रीभाव की उत्पत्ति होती है और मैत्रीभाव को प्राप्त करके यह जीव भाव-विशुद्धि के द्वारा सर्वथा निर्भय हो जाता है। ____टीका-प्रस्तुत गाथा में क्षमा के फल का वर्णन किया गया है। किसी के द्वारा अपराध हो जाने पर प्रतिकार का सामर्थ्य रखते हुए भी उसकी उपेक्षा कर देना, अर्थात् किसी प्रकार का दंड देने के लिए उद्यत न होना क्षमा कहलाती है। शिष्य पूछता है कि-'भगवन् ! क्षमा धारण करने से यह जीव किस गुण को प्राप्त करता है?'
• उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [११९] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं