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पदार्थान्वयः-सो वि-वह कुशिष्य, अन्तरभासिल्लो-मध्य में बोलने वाला, दोसमेव-अपराध ही, पकुव्वई-करता है, आयरियाणं-आचार्यों के, तं-उस, वयणं-वचन के, पडिकूलेइ-प्रतिकूल करता है, अभिक्खणं-पुनः पुनः।
मूलार्थ-वह कुशिष्य शिक्षा देने पर बीच में ही बोल पड़ता है, आचार्यों के वचनों में दोष निकालता है और बारम्बार उनके वचनों के प्रतिकूल चलता है।
टीका-इस गाथा में अविनीत शिष्यों को दी गई शिक्षा का जो विपरीत फल होता है उसका दिग्दर्शन कराते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि-ऐसे शिष्य को जब गुरु शिक्षा देने लगते हैं, तब वह कुशिष्य बीच में ही अनाप-शनाप बोल उठता है, अतः अपना दोष दूर करने की अपेक्षा एक नया अपराध कर देता है, तथा वह गुरुजनों के वचनों में दोष निकालता है और आचार्य, उपाध्याय आदि गुरुजनों की शिक्षा के विपरीत आचरण करता है।
सारांश यह है कि जो अविनीत शिष्य होते हैं, उन पर गुरुजनों की हित-शिक्षा का प्रभाव विपरीत ही पड़ता है, इसीलिए उक्त गाथा में 'अभीक्ष्णं' पद दिया है, जो कि बार-बार होने वाली अविनीतता का पोषण कर रहा है। अब उनकी प्रतिकूल वृत्ति का दिग्दर्शन कराते हैं -
न सा · ममं वियाणाइ, न वि सा मज्झ दाहिई । निग्गया होहिई .मन्ने, साहू अन्नोत्थ वच्चउ ॥ १२ ॥
न सा मां विजानाति, नापि सा मह्यं दास्यति ।
निर्गता भविष्यति मन्ये, साधुरन्यस्तत्र व्रजतु ॥ १२ ॥ पदार्थान्वयः-सा-वह-श्राविका, ममं-मुझको, न वियाणाइ-नहीं जानती, न वि-न ही, सा-वह, मज्झ-मुझे, दाहिई-देगी, निग्गया-घर से बाहर गई, होहिई-होगी, मन्ने-मैं यह मानता हूं, अत्थ-इस कार्य के लिए, अन्नो-और कोई, साहू-साधु, वच्चउ-चला जाए।
- मूलार्थ-वह श्राविका मुझ को जानती नहीं और न ही मुझे वह अन्नादि देगी तथा मैं मानता हूँ कि वह घर से बाहर गई हुई होगी, अतः इस कार्य के लिए कोई अन्य साधु चला जाए। ____टीका-प्रस्तुत गाथा में अविनीत शिष्य की प्रतिकूल चर्या का बड़ा ही सुन्दर चित्र खींचा गया है, जैसे कि-किसी शिष्य को आचार्य महाराज ने कहा कि "वत्स ! जाओ, अमुक घर से अमुक औषधि अथवा ग्लान साधु के लिए आहार ले आओ।" तब वह उत्तर देता है कि "भगवन् ! वह श्राविका मुझको जानती नहीं है, इसलिए वह मुझे आहारादि कोई वस्तु नहीं देगी।"
. इस पर आचार्य महाराज कहते हैं कि "वत्स ! जाओ वह तुझे न पहचानती हुई भी साधु समझ कर दे देगी।" इस पर वह कहता है कि मेरा विचार तो ऐसा है कि वह इस समय घर पर ही नहीं
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [६७] खलुंकिज्जं सत्तवीसइमं अज्झयणं