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एकाग्रमनःसंनिवेशना, २६ संयमः २७ तपः, २८ व्यवदानम्, २९ सुखशायः, ३० अप्रतिबद्धता, ३१ विविक्तशयनासनसेवना, ३२ विनिवर्तना, ३३ सम्भोग-प्रत्याख्यानम्, ३४ उपधिप्रत्याख्यानम्, ३५ आहारप्रत्याख्यानम्, ३६ कषायप्रत्याख्यानम्, ३७ योगप्रत्याख्यानम्, ३८ शरीरप्रत्याख्यानम्, ३९ साहाय्यप्रत्याख्यानम्ः, ४० भक्तप्रत्याख्यानम्, ४१ सद्भावप्रत्याख्यानम्, ४२ प्रतिरूपता, ४३ वैयावृत्यम्:, ४४ सर्वगुणसम्पन्नता, ४५ वीतरागता, ४६ क्षान्तिः, ४७ मुक्तिः , ४८ मार्दवम्, ४९ आर्जवम्, ५० भावसत्यम्, ५१ करणसत्यम्, ५२ योगसत्यम्, ५३ मनोगुप्तिता, ५४ वचोगुप्तिता, ५५ कायगुप्तिता, ५६ मनःसमाधारणा, ५७ वाक्समाधारणा, ५८ कायसमाधारणा, ५९ ज्ञानसम्पन्नता, ६० दर्शनसम्पन्नता, ६१ चारित्रसम्पन्नता, ६२ श्रोत्रेन्द्रियनिग्रहः, ६३ चक्षुरिन्द्रियनिग्रहः, ६४ घ्राणेन्द्रियनिग्रहः, ६५ जिह्वेन्द्रियनिग्रहः, ६६ स्पर्शेन्द्रियनिग्रहः, ६७ क्रोधविजयः, ६८ मानविजयः, ६९ मायाविजयः, ७० लोभविजयः, ७१ रागद्वेषमिथ्यादर्शनविजयः, ७२ शैलेषी, ७३ अकर्मता।
___ मूलार्थ-इस अध्ययन का यह अर्थ-अभिधेय इस प्रकार कहा है। जैसे कि-१ संवेग, २ निर्वेद, ३ धर्म-श्रद्धा, ४ गुरु और सधर्मियों की सेवा-शुश्रूषा, ५ आलोचना, ६ निन्दा, ७ गर्दा, ८ सामायिक, ९ चतुर्विंशतिस्तव, १० वन्दना, ११ प्रतिक्रमण, १२ कायोत्सर्ग, १३ प्रत्याख्यान, १४ स्तवस्तुतिमंगल, १५ कालप्रतिलेखना, १६ प्रायश्चितकरण, १७ क्षमापना, १८ स्वाध्याय, १९ वाचना, २० प्रतिपृच्छना, २१ परावर्त्तना, २२ अनुप्रेक्षा, २३ धर्म-कथा, २४ श्रुत की आराधना, २५ एकाग्र मन की सन्निवेशना, २६ संयम, २७ तप, २८ व्यवदान, २९ सुखशाय, ३० अप्रतिबद्धता, ३१ विविक्त शय्यासन का सेवन, ३२ विनिवर्तना, ३३ संभोग-प्रत्याख्यान, ३४ उपधि-प्रत्याख्यान, ३५ आहार-प्रत्याख्यान, ३६ कषाय-प्रत्याख्यान, ३७ योग-प्रत्याख्यान, ३८ शरीर-प्रत्याख्यान, ३९ सहाय-प्रत्याख्यान, ४० भक्त-प्रत्याख्यान, ४१ सद्भाव-प्रत्याख्यान, ४२ प्रतिरूपता, ४३ वैयावृत्य, ४४ सर्वगुण-सम्पूर्णता, ४५ वीतरागता, ४६ क्षांति, ४७ मुक्ति, ४८ मार्दव, ४९ आर्जव, ५० भावसत्य, ५१ करणसत्य, ५२. योगसत्य, ५३ मनोगुप्तता, ५४ वाग्गुप्तता, ५५ कायगुप्तता, ५६ मनःसमाधारण, ५७ वाक्समाधारण, ५८ कायसमाधारण, ५९ ज्ञानसम्पन्नता, ६० दर्शनसम्पन्नता, ६१ चारित्रसम्पन्नता, ६२ श्रोत्र-इन्द्रिय का निग्रह, ६३ चक्षु इन्द्रिय का निग्रह, ६४ घ्राण इन्द्रिय का निग्रह, ६५ जिह्वा इन्द्रिय का निग्रह, ६६ स्पर्श इन्द्रिय का निग्रह, ६७ क्रोध पर विजय, ६८ मान पर विजय, ६९ माया पर विजय, ७० लोभ पर विजय, ७१ राग, द्वेष और मिथ्या-दर्शन पर विजय, ७२ शैलेशी, ७३ अकर्मता, ये इस अध्ययन के द्वार हैं।
टीका-सूत्रकर्ता महर्षि ने प्रस्तुत अध्ययन में आने वाले विषयों की यह अनुक्रमणिका दे दी है, जिससे कि विषय-विवेचन में क्रम और सुगमता रहे और इनमें से प्रत्येक विषय का वर्णन आगे स्वयं सूत्रकार ही करेंगे, अतः इनके यहां पर अर्थ लिखने की आवश्यकता नहीं है।
अब क्रमप्राप्त संवेग के विषय में कहते हैं -
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १०२] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं