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सम्यक्त्व-पराक्रम, अज्झयणे - नाम वाला अध्ययन, समणेणं- श्रमण, भगवया - भगवान्, महावीरेणंमहावीर, कासवेणं- कश्यपगोत्री ने पवेइए- प्रतिपादन किया है, जं-जिसको, सम्मं सम्यक् प्रकार से, सद्दहिता - श्रद्धान करके, पत्तियाइत्ता - ग्रहण करके, रोयइत्ता - रुचि करके, फासित्ता - स्पर्श करके, पालइत्ता - पालन करके, तीरित्ता पार करके, कित्तइत्ता - कीर्तन करके, सोहइत्ता - शुद्ध करके, आराहित्ता - आराधन करके, आणाए - गुरु की आज्ञा से, अणुपालइत्ता - निरन्तर पालन करके, बहवे बहुत से, जीवा - जीव, सिज्झति - सिद्ध होते हैं, बुज्झति - बुद्ध होते हैं, मुच्चंति - कर्मों से मुक्त होते हैं, परिनिव्वायंति-शीतलीभूत होते हैं, सव्वदुक्खाणं- सर्व प्रकार के दुःखों का अंत करेंति-अन्त करते हैं।
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मूलार्थ - हे शिष्य ! मैंने सुना है कि श्री भगवान ने इस प्रकार कहा है - इस जगत् में वा जिन - शासन में निश्चय ही सम्यक्त्व - पराक्रम नामक अध्ययन कश्यपगोत्री श्रमण भगवान् महावीर ने प्रतिपादन किया है, जिसको सम्यक् प्रकार से श्रद्धान करके, अंगीकार करके, रुचि करके, स्पर्श करके, पालन करके, पार करके, कीर्तन करके, शुद्ध करके, आराधन करके और आज्ञा से निरन्तर सेवन करके बहुत से जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, कर्मों से मुक्त होते हैं, कर्मरूप दावानल से रहित होकर शान्त हो जाते हैं और सब प्रकार के शारीरिक वा मानसिक दुःखों का अन्त कर देते हैं।
टीका-श्री सुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं कि 'हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है जगत्-प्रसिद्ध कश्यपगोत्रीय भगवान् श्री महावीरस्वामी ने कहा है कि इस जगत् वा जिन- शासन में सम्यक्त्व-पराक्रम नामक अध्ययन है। सम्यक्त्वयुक्त जीव और उसके द्वारा उत्तरोत्तर गुणों की प्राप्ति के लिए पराक्रम करना इत्यादि सब इस अध्ययन में वर्णित है, अतः गुण - गुणी का अभेद होने से प्रस्तुत- अध्ययन का नाम भी सम्यक्त्व-पराक्रम रखा गया है। इस अध्ययन को भगवान् ने मेरे प्रति प्रतिपादित किया है।
इस प्रकार वक्ता के द्वारा इस अध्ययन का माहात्म्य वर्णन किया गया है। अब फलश्रुति से इसका महत्व वर्णन करते हुए कहते हैं कि इस अध्ययन का सम्यक् प्रकार से श्रद्धान करके, विशेषता से इसको अंगीकार करके, वा निश्चित करके इस अध्ययन में कथन किए गए क्रियानुष्ठान में रुचि उत्पन्न करके तथा उस क्रिया को स्पर्श करके, निरतिचाररूप से पालन करके और उस क्रियानुष्ठान को पार पहुंचाकर तथा स्वाध्यायादि के द्वारा इसका कीर्तन करके, उत्तरोत्तर गुणों की शुद्धि करके, एवं उत्सर्ग और अपवाद-मार्ग से इसकी आराधना करके, गुरु की आज्ञा से इसका निरन्तर अनुशीलन करके, अथवा मन, वचन और काया से स्पर्श करके, मन से सूत्रार्थ का चिन्तन करना, वचन से इसकी प्ररूपणा करना, काया से इसकी भंग होने से रक्षा करना, इस प्रकार तीनों योगों से भली-भांति स्पर्श करके तथा परावर्तनादि से रक्षा करके, अध्ययनादि से इसकी समाप्ति करके और गुरुजनों की विनय - भक्ति करके मैंने इसको पढ़ा है। इस प्रकार इसका कीर्तन करके, एवं गुरु की आज्ञा से इसकी शुद्धि करके, तथा उत्सूत्र - प्ररूपणा के परिहार से इसकी आराधना करके बहुत से जीव सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं,.अर्थात् घाती कर्मों को क्षय करके केवल - ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं, फिर सर्व कर्मों से मुक्त होकर
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १०० ] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं