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संवेगेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं जणय । अणुत्तराए धम्मसद्धाए संवेगं हव्वमागच्छइ । अणंताणुबंधिकोह - माण- माया लोभे खवेइ। नवं च कम्मं न बंधइ, तप्पच्चइयं च णं मिच्छत्तविसोहिं काऊण दंसणाराहए भवइ । दंसणविसोहीए य णं विसुद्धाए अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झ । विसोहीए य णं विसुद्धाए तच्चं पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ ॥ १ ॥
संवेगेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? संवेगेनानुत्तरां धर्मश्रद्धां जनयति । अनुत्तरया धर्मश्रद्धया संवेगं शीघ्रमागच्छति। अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभान् क्षपयति । नवं च कर्म न बध्नाति । तत्प्रत्ययिकां च मिथ्यात्वविशुद्धिं कृत्वा दर्शनाराधको भवति । दर्शनविशुद्धया च विशुद्धोऽस्त्येककः तेनैव भवग्रहणेन सिध्यति । विशुद्धया च विशुद्धः तृतीयं पुनर्भवग्रहणं नातिक्रामति ॥ १ ॥
पदार्थान्वयः - भंते - हे भगवन्, संवेगेणं- संवेग से, जीवे जीव, किं-जणयइ - क्या उपार्जन करता है? संवेगेणं-संवेग से, अणुत्तरं प्रधान, धम्मसद्धं - धर्म - श्रद्धा को, जणय - उत्पन्न करता है, अणुत्तराए धम्मसद्धाए- अनुत्तर धर्म- श्रद्धा से, संवेगं संवेग, हव्वं शीघ्र, आगच्छइ-आ जाता है-जिससे, अणंताणुबंधि - अनन्तानुबंधी, कोहमाणमायालोभे - क्रोध, मान, माया और लोभ को, खवेइ - क्षय करता है, च- फिर, नवं- नवीन, कम्मं-कर्म को, न बंधइ- नहीं बांधता, तप्पच्चइयं -क्षय-प्रत्यय है निमित्त जिसका, वह, तत्प्रत्ययिका है, च- और कर्मों के बन्धन का अभाव होने से, णं-वाक्यालंकार में है, मिच्छत्तविसोहिं - मिथ्यात्व की विशुद्धि, काऊण करके, दंसणाराहए - दर्शन का आराधक, भवइ-होता है, दंसणविसोहीए - दर्शन की विशुद्धि से, विसुद्धा - विशुद्ध होने पर, य-फिर, णं-वाक्यालंकार में, अत्थेगइए - अस्ति - है कोई एक भव्य जीव, तेणेव - उसी, भवग्गहणेणं - भवग्रहण से, सिज्झइ - सिद्ध हो जाता है, य-तथा, विसोहीए - दर्शन की विशुद्धि से, विसुद्धाए - विशुद्ध होने पर, तच्चं - तृतीय भव, पुणो- पुनः, भवग्गहणं भव ग्रहण को, नाइक्कमइ - अतिक्रम नहीं करता ।
मूलार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! संवेग से जीव किस गुण का उपार्जन करता है?
उत्तर - हे शिष्य ! संवेग से यह जीव अनुत्तर धर्मश्रद्धा को उत्पन्न करता है। अनुत्तर धर्मश्रद्धा से संवेग शीघ्र आ जाता है, फिर अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ को क्षय कर देता है तथा नवीन कर्मों को नहीं बांधता । इसी कारण से मिथ्यात्व की विशुद्धि करके वह दर्शन का आराधक हो जाता है, तथा दर्शन की विशुद्धि से विशुद्ध होने पर कोई एक भव्य जीव उसी जन्म में मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, अन्यथा तीसरे भव का तो अतिक्रमण कर ही नहीं सकता, अर्थात् तीसरे जन्म में तो अवश्यमेव उसका मोक्ष हो जाता है।
टीका-प्रस्तुत अध्ययन में ७३ प्रश्नोत्तर बड़ी सुन्दरता से वर्णन किए गए हैं। यद्यपि इनका मुख्य उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है, तथापि प्रत्येक प्रश्न का उत्तर प्रश्न के अनुरूप दिया गया है।
मोक्ष - मन्दिर तक पहुंचने के लिए जो निसरणी ( सीढ़ी) है उसका प्रथमपाद संवेग है, अर्थात् मोक्ष-मार्ग का आरम्भ संवेग से होता है, इसलिए प्रथम संवेग के विषय में प्रश्न किया गया है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१०३] सम्मत्तपरक्कमं एगूणतीसइमं अज्झयणं