________________
ज्ञानं च दर्शनं चैव, चारित्रं च तपस्तथा । एतं मार्गमनुप्राप्ताः, जीवा गच्छन्ति सुगतिम् ॥ ३ ॥
पदार्थान्वयः - नाणं -- ज्ञान, दंसणं-दर्शन, च- और, चरित्तं चारित्र, तहा - उसी प्रकार, एवं - इस, मग्गं-मार्ग को अणुप्पत्ता- आश्रित हुए, जीवा - जीव, सोग्गइं - सुगति को, गच्छन्ति-चले जाते हैं, एवं - निर्धारण में, च- समुच्चय अर्थ में है।
मूलार्थ - इस ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के आश्रित हुए जीव सुगति को प्राप्त हो जाते हैं।
टीका - शास्त्रकार कहते हैं कि जिन जीवों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप का सम्यक्तया आराधन किया है, वे जीव मोक्ष को प्राप्त हो गए, तात्पर्य यह है कि ज्ञानादि की सम्यक् आराधना का फल मोक्ष है।
अब क्रम प्राप्त ज्ञान का वर्णन करते हैं
तवो-त
स्थानांगसूत्र' में सुगति की व्याख्या करते हुए वह चार प्रकार की प्रतिपादित की गई है। इसमें प्रथम सिद्धों की सुगति है।
तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिनिबोहियं । ओहिनाणं तु तइयं, मणनाणं च केवलं ॥ ४ ॥
- तप,
तत्र पंचविधं ज्ञानं श्रुतमाभिनिबोधिकम् । अवधिज्ञानं तु तृतीयं, मनोज्ञानं च केवलम् ॥ ४ ॥
पदार्थान्वयः- तत्थ-उन में, नाणं-ज्ञान, पंचविहं पांच प्रकार का है, सुयं श्रुतज्ञान, आभिनिबोहियं-आभिनिबोधिकज्ञान, तु-और, तइयं - तीसरा, ओहिनाणं - अवधिज्ञान, मणनाणं- मनः पर्यवज्ञान, च- - और, केवलं केवल ज्ञान ।
मूलार्थ - उनमें ज्ञान पांच प्रकार का है, यथा श्रुतज्ञान, आभिनिब्रोधिकज्ञान, अर्थात् मति - ज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्याय और केवल - ज्ञान ।
टीका - प्रस्तुत गाथा में ज्ञान के श्रुति, मति, अवधि, मनःपर्याय और केवल ये पांच भेद बताए गए हैं। अक्षरश्रुत आदि भेदों से श्रुतज्ञान चौदह प्रकार का है । सन्मुख उपस्थित हुए पदार्थों के स्वरूप को जानने वाला ज्ञान आभिनिबोधिक या मतिज्ञान कहलाता है। नीचे-नीचे विशेष गति करने वाला तथा रूपी द्रव्यों को जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान है एवं मनोद्रव्य-वर्गणा के पर्यायों को जानने वाला मनः पर्यवज्ञान है और केवल पदार्थों के स्वरूप को जानने वाला तथा मन की सहायता के बिना लोकालोक के समस्त द्रव्य और पर्यायों का अवभास कराने वाला केवलज्ञान है।
यद्यपि नन्दी आदि सूत्रों में पहले मतिज्ञान का उल्लेख किया गया है, और इस गाथा में प्रथम १. चत्तारि सोग्गईओ पण्णत्ताओ, तं जहा - 'सिद्ध-सोग्गई, देव - सोग्गई, मणुय - सोग्गई, सुकुलपच्चायाई [स्था. ४३. १ सू. २६८ ]
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [७४] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं