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छेदोपस्थापनीय, बीयं-द्वितीय चारित्र, भवे-है, परिहारविसुद्धीयं-परिहारविशुद्धि-तीसरा, सुहुमं संपरायं-सूक्ष्म-संपराय, यह चौथा है, च-समुच्चयार्थ में है।
मूलार्थ-प्रथम सामायिक-चारित्र, द्वितीय छेदोपस्थापनीय, तृतीय परिहार-विशुद्धि और चतुर्थ सूक्ष्म-संपराय चारित्र है।
___टीका-प्रस्तुत गाथा में चारित्र के भेदों का वर्णन किया गया है। सामायिक-सम्यक् प्रकार से गमन ही जिसका प्रयोजन है उसको सामायिक-चारित्र कहते हैं, अथवा जिसका राग-द्वेष सम है और उसी में जिसका गमन है उसे सामायिक-चारित्र कहा गया है। यदि सरल शब्दों में कहें तो अहिंसादि पांच महाव्रतरूप प्रथम भूमिका के चारित्र का नाम सामायिक-चारित्र है, अतएव यह चारित्र सर्वसावद्य-निवृत्तिरूप होता है।
इस चारित्र के भी दो भेद हैं-१. इत्वरकालिक और २. यावत्कालिक। इन में भारत और ऐरावत क्षेत्र में प्रथम और चरम तीर्थंकर के समय में इत्वरकालिक-चारित्र होता है, क्योंकि सामायिक-चारित्र के पश्चात् छेदोपस्थापनीय-चारित्र प्रदान किया जाता है और मध्य में रहने वाले बाईस तीर्थंकरों के समय में वा महाविदेह-क्षेत्र में यावत्कालिक-सामायिक-चारित्र रहता है। यह आयुपर्यन्त होता है।
२. छेदोपस्थापनीय-चारित्र सातिचार वा निरतिचार होने पर पूर्व-पर्याय का छेदन करके पांच महाव्रतों का आरोपण करना रूप है। अथवा पूर्व-गृहीत सामायिक-चारित्र के काल को छेद कर पांच महाव्रतरूप जो चारित्र धारण किया जाता है उसे छेदोपस्थापनीय कहते हैं।
३. परिहार-विशुद्धि-विशिष्ट तप के द्वारा की जाने वाली आत्मा की विशुद्धि को परिहार-विशुद्धि कहते हैं। तात्पर्य यह है कि उच्च प्रकार और तपश्चर्या-पूर्वक डेढ़ वर्ष तक चारित्र का यथाविधि पालन करना ही परिहार-विशुद्धि-चारित्र है। इसकी विधि इस प्रकार से वर्णित है-परिहार-विशुद्धि के लिए गच्छ से नौ साधु निकलते हैं, वे अठारह मास तक इस प्रकार से तपश्चर्या करते हैं-उन नव-साधुओं में से चार साधु तो छ: मास तक तप करते हैं और चार उनकी वैयावृत्य-सेवा-शुश्रूषा करते हैं, तथा उनमें से एक नवमा-वाचनाचार्य होता है। जब पहले चार साधु छः मास पर्यन्त तप कर चुकते हैं तो दूसरे चार जो उनकी परिचर्या में लगे हुए थे तप करना आरम्भ कर देते हैं और पहले चार साधु उनकी वैयावृत्य में लग जाते हैं। जब उनके छः मास पूरे हो जाते हैं तो उनमें जो एक वाचनाचार्य था, वह तप करने लगता है और उन आठों में से एक वाचनाचार्य बन जाता है, तथा शेष साधु उसकी सेवा में प्रवृत्त रहते हैं। वह भी छ: मास तक तप करता है। इस प्रकार जब अठारह मास पूरे हो जाते हैं, तब वे जिन-कल्प के अथवा गच्छ के आश्रित होकर विचरने लगते हैं।
परन्तु वृत्तिकारों ने ग्रीष्म काल में जघन्य-तप-उपवास, मध्यम, षष्ठभक्त [दो दिन का उपवास] उत्कृष्ट, अष्टम [तीन दिन का उपवास] तप और पारने के लिए आचाम्ल तप करना लिखा है तथा शिशिर-काल में जघन्य षष्ठ तप, उत्कृष्ट दशम पर्यन्त कहा है एवं वर्षा-ऋतु में जघन्य अष्टम-तप और उत्कृष्ट द्वादश-तप का करना लिखा है तथा पारने के दिन आचाम्लादि तप का उल्लेख किया है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [९४] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं