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अह मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं
अथ मोक्षमार्गगतिरष्टाविंशमध्ययनम्
गत सत्ताईसवें अध्ययन में संयम-विरोधी शठभाव के त्याग और ऋजुभाव के अंगीकार से साधुवृत्ति के पालन करने का विधान किया गया है, अर्थात् यह कहा गया है कि ऋजुभाव से पूर्वोक्त दशविध सामाचारी के पालन करने से प्राप्त होने वाली आत्म-शुद्धि के द्वारा मोक्षपद की प्राप्ति हो सकती है, अतः इस अट्ठाईसवें अध्ययन में अब मोक्षमार्ग का वर्णन करते हैं। यथा -
मोक्खमग्गगई तच्चं, सुणेह जिणभासियं । चउकारणसंजुत्तं, नाण-दसण-लक्खणं ॥ १ ॥ मोक्षमार्गगतिं तथ्यां, श्रृणुत जिनभाषिताम् ।
चतुःकारणसंयुक्तां, ज्ञानदर्शनलक्षणाम् ॥ १ ॥ पदार्थान्वयः-मोक्खं-मोक्ष, मग्ग-मार्ग की, गई-गति को, तच्च-यथार्थ, जिणभासियंजिनभाषित-और, चउकारण-चार कारणों से, संजुत्तं-संयुक्त, नाण-ज्ञान, सण-दर्शन-जिसका, लक्खणं-लक्षण है, सुणेह-सुनो।
मूलार्थ-हे गौतम् ! अब चार कारणों से युक्त, ज्ञान और दर्शन जिसके लक्षण हैं, ऐसी जिनभाषित मोक्ष की यथार्थ गति को तुम मुझसे सुनो।
टीका-आचार्य-शास्त्रकार कहते हैं कि अष्टविध कर्मों का नाश करने वाली, अथवा मोक्षमार्ग की सिद्धि रूप, जो यथार्थ गति है, वह जिनभाषित है, अतएव प्रामाणिक है, तथा वह चार कारणों से युक्त है। ज्ञान एवं दर्शन जिसके आत्मभूत लक्षण हैं, ऐसी मोक्ष-गति के स्वरूप को, तुम सावधान होकर मुझसे श्रवण करो !
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [७२] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं