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अब फिर इसी विषय में कहते हैं, यथा -
वाइया संगहिया चेव, भत्तपाणेण पोसिया । जायपक्खा जहा हंसा, पक्कमन्ति दिसो दिसिं ॥ १४ ॥
वाचिताः संगृहीताश्चैव, भक्तपानेन पोषिताः ।
जातपक्षा यथा हंसाः, प्रक्राम्यन्ति दिशो दिशम् ॥ १४ ॥ पदार्थान्वयः-वाइया-पढ़ाए, च-और, संगहिया-अपने पास रखा, एव-अवधारण अर्थ में है, भत्तपाणेण-भक्त पान से, पोसिया-पुष्ट किए, जहा-जैसे, हंसा-हंस, जायपक्खा-पंखों के उत्पन्न होने पर, दिसो दिसिं-दसों दिशाओं में, पक्कमन्ति-घूमते हैं।
मूलार्थ-आचार्य मन में विचार करते हैं कि “मैंने इन्हें पढ़ाया और अपने पास रखा तथा भक्त-पानादि से पोषित किया, परन्तु जैसे परों के आ जाने पर हंस पक्षी आकाश में स्वच्छन्दता से गमन कर जाते हैं, तद्वत् ये शिष्य भी अब स्वेच्छाचारी हो गए हैं।
टीका-शिक्षा दिए जाने पर भी विपरीत आचरण करने वाले अविनीत शिष्यों के विषय में आचार्य महाराज के आन्तरिक उद्गारों का इस गाथा में उल्लेख किया गया है। आचार्य सोचते हैं कि "मैंने इन शिष्यों को पढ़ाया. अर्थात अर्थ-सहित शास्त्रों का स्वाध्याय कराया. इनको सम्यक प्रक । संग्रहीत किया, अर्थात् दीक्षित किया या अपने पास रखा, फिर भक्त-पान के द्वारा इनका भली-भांति पोषण किया, परन्तु माता-पिता के द्वारा लालित और पालित किए गए हंस पक्षी जैसे परों के आ जाने पर माता-पिता के लालन और पालन की कुछ भी परवाह न करते हुए अपनी इच्छा के अनुसार कहीं भी उड़ जाते हैं तद्वत् ये अविनीत शिष्य भी अब स्वेच्छाचारी बन गए हैं।"
यद्यपि प्रथम गाथा में भी 'पर्यटन' शब्द आया है, परन्तु वह नगर की अपेक्षा से कथन किया गया है और यहां पर देश की अपेक्षा से भ्रमण का विधान है, इसलिए पुनरुक्ति दोष की संभावना नहीं है।
इतना. और भी स्मरण रहे कि आचार्य महाराज के ये उद्गार उनके पश्चात्ताप के सूचक नहीं, किन्तु ये शिष्य मोक्षसाधन के योग्य नहीं बने, इस विषय का विचार करते हैं। जिस प्रकार दुष्ट वृषभादि की वक्र चेष्टाओं का ऊपर वर्णन किया गया है, ठीक उसी प्रकार अविनीत शिष्यों की क्रियाओं का यहां पर दिग्दर्शन कराया गया है।
जिस प्रकार दुष्ट पशुओं की कुचेष्टाओं से उनका वाहक व्याकुल हो जाता है, उसी प्रकार अविनीत शिष्यों के विपरीत व्यवहार से आचार्य भी असमाधियुक्त हो जाते हैं। तब असमाधियुक्त होने से वे जो कुछ विचार करते हैं अब उस का दिग्दर्शन कराया जाता है -
अह सारही विचिंतेइ, खलुंकेहिं समागओ । .. किं मज्झ दुट्ठसीसेहिं ? अप्पा मे अवसीयई ॥ १५ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [६९] खलुंकिन्जं सत्तवीसइमं अल्झयणं