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इस प्रकार प्रथम आवश्यक का वर्णन करके अब अन्य आवश्यकों के विषय में कहते हैं -
पारियकाउस्सग्गो, वंदित्ताण तओ गुरुं । राइयं तु अईयारं, आलोएज्ज जहक्कम ॥ ४९ ॥
पारितकायोत्सर्गः, वन्दित्वा ततो गुरुम् ।
रात्रिकं त्वतिचारं, आलोचयेद्यथाक्रमम् ॥ ४९ ॥ पदार्थान्वयः-पारिय-पार कर, काउसग्गो-कायोत्सर्ग, तओ-तदनन्तर, वन्दित्ताण-वन्दना करके, गुरु-गुरु को, राइयं-रात्रि-संबंधी, अईयारं-अतिचारों की, आलोएज्ज-आलोचना करे, जहक्कमअनुक्रम से।
मूलार्थ-कायोत्सर्ग को पूर्ण करके तदनन्तर (साधु ) गुरु की वंदना करके अनुक्रम से रात्रि-संबंधी अतिचारों की आलोचना करे।
टीका-साधु कायोत्सर्ग से निवृत्त होकर और गुरु की विधि-पूर्वक द्वादशावर्त वन्दना करके उनसे द्वितीय आवश्यक की आज्ञा लेवे। जब द्वितीय आवश्यक कर चुके, तब फिर वन्दना करके तृतीय आवश्यक की आज्ञा ग्रहण करे, फिर उस आवश्यक में दो बार 'इच्छामि खमासमणो' पढ़े। इस प्रकार जब तीसरा आवश्यक पूरा हो जाए, तब चतुर्थ आवश्यक के करने की आज्ञा लेवे और उसको करने लग जाए। ___तात्पर्य यह है कि रात्रि-संबंधी जिन अतिचारों का ध्यान में चिन्तन किया था उनको अनुक्रम से उच्च स्वर में उच्चारण करता हुआ प्रत्येक के अन्त में 'मिच्छा मि दुक्कडं' देवे।
यहां पर अतिचारों की आलोचना करने का तात्पर्य यह है कि जिन अतिचारों का ध्यान में चिन्तन किया था, उनके लिए मुनि को पश्चात्ताप करना चाहिए, अर्थात् अपनी भूल स्वीकार करते हुए भविष्य में उनके सम्पर्क से सावधान रहने का प्रयत्न करना चाहिए। इस कथन से यह भी प्रमाणित हो जाता है कि आत्मशुद्धि का यही एक प्रशस्त मार्ग है, जिस पर चलता हुआ मुमुक्षु पुरुष परम कल्याण रूप मोक्ष का अधिकारी हो सकता है। अब फिर पूर्वोक्त विषय में ही पुनः कहते हैं - ..
पडिक्कमित्तु निस्सल्लो, वन्दित्ताण तओ गुरुं । काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ॥ ५० ॥ .. प्रतिक्रम्य निःशल्यः, वन्दित्वा ततो गुरुम् ।
कायोत्सर्गं ततः कुर्यात्, सर्वदुःखविमोक्षणम् ॥ ५० ॥ पदार्थान्वयः-पडिक्कमित्तु-प्रतिक्रमण करके, निस्सल्लो-नि:शल्य हो कर, तओ-तदनन्तर, गुरु-गुरु को, वन्दित्ताण-वन्दना करके, तओ-तत्पश्चात्, काउस्सगं-कायोत्सर्ग, कुज्जा-करे,
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [५६] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं