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पदार्थान्वयः-सव्वदुक्खविमोक्खणे - सर्व दुःखों से छुड़ाने वाले, कायवोस्सगे-कायव्युत्सर्ग के समय के, आगए - आने पर, काउस्सग्गं कायोत्सर्ग, कुज्जा-करे, तओ - तदनन्तर, विमोक्खणं - सर्व दु:खों से मुक्त करने वाला ।
सव्वदुक्ख
मूलार्थ - सर्व प्रकार के दुःखों से छुड़ाने वाले कायोत्सर्ग के करने का समय आने पर सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे।
टीका- यहां पर भी पूर्वोक्त विधि का ही संक्षेप से वर्णन किया गया है, यथा - सामायिक आवश्यक करके फिर चतुर्विंशति स्तव करे, तदनन्तर वन्दना करके फिर चतुर्थ आवश्यक के करने की गुरु से आज्ञा लेकर कायोत्सर्ग करे ।
यहां पर कायोत्सर्ग के साथ जो 'सर्वदुःखविमोक्षणं' का बार-बार संबंध किया गया है, उसका अभिप्राय कायोत्सर्ग के महत्व का वर्णन करना है; अर्थात् इसके द्वारा ही कर्मों की अत्यन्त निर्जरा हो सकती है तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विशुद्धि का प्रधान कारण भी यही है। इसके अतिरिक्त आत्मा को समाधि का प्राप्त होना और उसके द्वारा परमोत्कृष्ट आनन्दमय रस का पान करना भी इसी के द्वारा उपलब्ध हो सकता है, अत: प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को कायोत्सर्ग में प्रवृत्त होना चाहिए। अब कायोत्सर्ग में चिन्तनीय अतिचारों के विषय में कहते हैं -
राइयंच अईयारं, चिन्तिज्ज अणुपुव्वसो । नाणंमि दंसणंमि य, चरित्तंमि तवंमि य ॥ ४८ ॥ रात्रिक: चातिचार, चिन्तयेदनुपूर्वशः । ज्ञाने दर्शने च, चारित्रे तपसि च ॥ ४८ ॥
पदार्थान्वयः - राइयं- रात्रि-संबंधी, अईयारं - अतिचारों की, अणुपुव्वसो - अनुक्रम से, चिन्तिज्ज - चिन्तवना करे, य-और, नाणंमि-ज्ञान में, दंसणंमि-दर्शन में, चरितंमि - चारित्र में, - और, तवंमि- -तप में तथा वीर्य में लगे हुए अतिचारों की, च- पादपूर्ति में है।
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मूलार्थ - रात्रि में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य में लगे हुए अतिचारों की अनुक्रम से चिन्तवना करे |
टीका- जब साधु प्रथम आवश्यक करने लगे तब समग्र सूत्र पाठ को पढ़कर फिर ध्यान करता हुआ इस बात का विचार करे कि मुझे आज रात्रि में ज्ञान-संबंधी, दर्शन-संबंधी तथा तप और वीर्य-संबंधी कोई अतिचार अर्थात् दोष तो नहीं लगा ? ताकि आगे के लिए मैं सावधान रहने का प्रयत्न करूं। इस प्रकार से कायोत्सर्ग में जो अतिचारों का चिन्तवन करने का विधान है, उससे यह भी स्वयमेव सिद्ध हो जाता है कि शेष कायोत्सर्गों में 'चतुर्विंशति - स्तव' का चिन्तवन करना चाहिए- 'शेषकायोत्सर्गेषु चतुर्विंशतिस्तवः प्रतीतश्चिन्त्यतया साधारणश्चेति नोक्तः' अर्थात् शेष कायोत्सर्गों में चतुर्विंशतिस्तव की चिन्तवना की जाती है, किन्तु प्रसिद्ध होने से उसका वर्णन नहीं किया गया है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ५५ ] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं