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यां चरित्वा बहवो जीवाः, तीर्णाः संसारसागरम् ॥ ५३ ॥ इति ब्रवीमि ।
इति सामाचारी - षड्विंशमध्ययनं समाप्तम् ॥ २६ ॥
पदार्थान्वयः - एसा - यह, सामायारी - सामाचारी, समासेण-संक्षेप से, वियाहिया - वर्णन की गई है, जं-जिसको, चरित्ता - आचरण करके, बहू- बहुत, जीवा - जीव, संसार संसाररूप, सागरं - समुद्र को, तिण्णा - तर गए, त्ति बेमि- इस प्रकार मैं कहता हूं।
मूलार्थ - यह सामाचारी संक्षेप से वर्णन की गई है जिसका आचरण करके बहुत से जीव संसार - सागर से तर गए हैं।
टीका - शास्त्रकार कहते हैं कि इस दस प्रकार की ओघरूप सामाचारी का मैंने संक्षेप से वर्णन किया है, इस पर आचरण करके बहुत से जीव इस संसार से तर गए- पार हो गए। उपलक्षण से, वर्तमान काल में तर रहे हैं और आगामी काल में तरेंगे।
यहां पर इतना स्मरण रहे कि पदविभागात्मक सामाचारी का छेद सूत्रों में बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है, इस स्थान पर तो धर्मकथानुयोग होने से सामाचारी का संक्षेप से ही निरूपण हुआ है। अधिक की जिज्ञासा रखने वाले छेद - सूत्रों को देखें ।
इतना और ध्यान में रहे कि प्रस्तुत अध्ययन में जितना भी वर्णन किया गया है, वह प्रायः औत्सर्गिक मार्ग का अवलम्बन करके किया गया है अपवाद मार्ग में तो इसमें कुछ व्युत्क्रम न्यूनाधिकता भी हो जाती है। जैसे प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय, दूसरी में ध्यान, तीसरी में आहार की गवेषणा और चौथी में फिर स्वाध्याय करना, यह क्रम है । परन्तु जब विहार किया जाएगा, तब इस प्रकार की क्रम-व्यवस्था का रहना कठिन हो जाता है; अतः ऐसे समय में अपवाद - मार्ग का अनुसरण करके समयानुसार सामाचारी के पदों की व्यवस्था करनी पड़ती है । इसलिए गीतार्थ मुनि सामाचारी के प्रत्येक पद का समय को देखकर आराधन करे और अन्य आत्माओं को उसके आराधन की आज्ञा प्रदान करे । इसके अतिरिक्त 'त्ति बेमि' का भावार्थ पहले की तरह ही समझ लेना । यह सामाचारी नाम का छब्बीसवां अध्ययन समाप्त हुआ।
षड्विंशमध्ययनं सम्पूर्णम्
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [५९] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं