________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-११ सिद्धमातृकोपदेशयोग्यदारकवत् / प्रेक्षावंतः पुनरागमादनुमानाच्च प्रवर्तमानास्तत्त्वं लभंते, न केवलादनुमानात्प्रत्यक्षादितस्तेषामप्रवृत्तिप्रसंगात् / नापि केवलादागमादेव विरुद्धार्थमतेभ्योपि प्रवर्तमानानां प्रेक्षावत्त्वप्रसक्तेः। तदुक्तं - "सिद्धं चेद्धेतुतः सर्वं न प्रत्यक्षादितो गतिः। सिद्धं चेदागमात्सर्वं विरुद्धार्थमतान्यपि // " (समन्तभद्राचार्य) इति / तस्मादाप्ते वक्तरि संप्रदायाव्यवच्छेदेन निश्चिते तद्वाक्यात्प्रवर्तनमागमादेव / वक्तर्यनाप्ने तु यत्तद्वाक्यात्प्रवर्तनं तदनुमानादिति विभागः साधीयान् / तदप्युक्तं / छोटे बच्चों को उनके अनुसार सिद्धमातृका (अ, आ, इ, ई आदि वर्णमाला का) उपदेश देना ही लाभकर है, उसी प्रकार श्रद्धानुसारी भव्य प्राणियों को उनके अनुरूप ही उपदेश देना योग्य है। परीक्षाप्रधानी तो पुनः आगम तथा अनुमान प्रमाण से प्रवचन में प्रवृत्ति करते हुए तत्त्व को प्राप्त करते हैं। उन बुद्धिमानों की प्रवचन में प्रवृत्ति केवल अनुमान से नहीं होती - क्योंकि केवल अनुमान से प्रवृत्ति मान लेने पर उनके प्रत्यक्षादि (प्रत्यक्ष, आगम, स्मरण) से अप्रवृत्ति का प्रसंग आता है - अर्थात् केवल अनुमान ज्ञान से ही शास्त्र में प्रवृत्ति होती है, ऐसा सर्वथा एकान्त स्वीकार करने पर प्रत्यक्षादि ज्ञान से प्रवृत्ति के अभाव का प्रसंग आता है। तथा केवल आगम ज्ञान से ही प्रवचन में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि केवल आगम से शास्त्र में प्रवृत्ति स्वीकार कर लेने पर अनेक विरुद्ध पदार्थों के प्रतिपादक शास्त्रों में प्रवृत्ति करने वालों में भी बुद्धिमत्ता का प्रसंग आयेगा अर्थात् अन्य मतों के पोषक ऐसे शास्त्रों (शास्त्राभासों) के बल पर विरुद्धार्थ में प्रवृत्ति करने वाले भी बुद्धिमान् कहलायेंगे। अतः केवल आगम से वा केवल अनुमान से बुद्धिमानों की प्रवृत्ति शास्त्रश्रवण में नहीं होती। देवागमस्तोत्र में कहा भी है - “यदि सर्व पदार्थों की (वा शास्त्रकी) सिद्धि हेतु मात्र से (अनुमान से) ही मानी जावे तो प्रत्यक्षादि ज्ञान की प्रवृत्ति ही नहीं होगी अर्थात् प्रत्यक्ष, आगम आदि ज्ञान निरर्थक हो जायेंगे और यदि सर्व पदार्थों की सिद्धि आगम से ही सिद्ध की जावे तो विरुद्ध अर्थों का प्रतिपादन करने वालों के मतों (सिद्धान्तों) की सिद्धि भी हो जायेगी। क्योंकि विरुद्ध का प्रतिपादन करने वाले भी अपने शास्त्र को आगम मानते ही हैं।" इसलिए संप्रदाय के अव्यवच्छेद से वक्ता आप्त के (सर्वज्ञ के) सिद्ध हो जाने पर उसके वचनों से जो प्रवृत्ति होती है वह आगम से ही हुई प्रवृत्ति कही जाती है अर्थात् वक्ता के निर्दोष सिद्ध हो जाने पर उसके वचनों में श्रद्धा होती है और उसके वचन रूप आगम से हितकार्य में प्रवृत्ति होती है। तथा वक्ता के सत्य वक्तापना सिद्ध न होने पर उसके वचनों से जो प्रवृत्ति होती है, वह अनुमान से हुई कही जाती है। अर्थात् प्रथम उन वचनों को अनुमान ज्ञान से सिद्ध करके फिर उनमें प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार अनुमान से और आगम से जाने गए प्रमेय का भेद सिद्ध ही है।