________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 171 ___यदि पुनरेंकज्ञानतादात्म्येन पीताद्याभासानामनुभवनात्तद्वेदनं चित्रमेकमिति मतं, तदा रूपादिज्ञानपंचकस्यैकसंतानात्मकत्वेन संवेदनादेकं चित्रज्ञानमस्तु / तस्यानेकसंतानात्मकत्वे पूर्वविज्ञानमेकमेवोपादानं न स्यात् / पूर्वानेकविज्ञानोपादानमेकरूपादिज्ञानपंचकमिति चेत्, तर्हि भिन्नसंतानत्वात्तस्यानुसंधानविकल्पजनकत्वाभावः / पूर्वानुसंधानविकल्पवासना तजनिकेति चेत्, कुतोऽहमेवास्य द्रष्टा स्प्रष्टा घ्राता स्वादयिता श्रोतेत्यनुसंधानवेदनं? रूपादिज्ञानपंचकानंतरमेवेति ___ यदि पुनः नील-पीतादिक आकार स्वरूप से प्रतिभासों का एक ज्ञान के साथ तादात्म्य रूप से अनुभव होने से उस ज्ञान को एक चित्रज्ञान मानते हो तो रूप-रसादिक पाँच ज्ञानों का भी एक सन्तानरूप तादात्म्य से अनुभव होने से वे रूपादि पाँचों ज्ञान भी एक चित्रज्ञान रूप होने चाहिए (क्योंकि चित्रपने के लिए दोनों में तादात्म्य सम्बन्ध समान है।) . उन रूप, रसादि पाँच ज्ञानों को अनेक संतान रूप मानने पर पूर्व का एक विज्ञान ही उनका उपादान कारण नहीं हो सकेगा।. अर्थात्- विवक्षित आत्मा के एक ज्ञान रूप उपादान कारण से नाना आत्माओं का ज्ञान उपादेय नहीं हो पाता है, वैसे ही एक आत्मा में स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द ज्ञान की संतानधाराएँ पृथक्-पृथक् स्वतंत्र चल रही हैं। अत: बौद्ध मत में प्रसिद्ध रसज्ञान के गन्ध आदि ज्ञान की उपादान कारणता नहीं हो सकेगी। गन्धज्ञान का पूर्व काल सम्बन्धी गन्ध ज्ञान ही उपादान कारण होगा और ऐसा होने पर आत्मा में अनेक उपादान कारण होने योग्य ज्ञानगुणों को मानना पड़ेगा (जो सिद्धान्तविरुद्ध है)। __ यदि पाँच रूपादि ज्ञानों के पूर्ववर्ती पाँच ज्ञानों को उपादान कारण मानोगे तो भिन्न-भिन्न सन्तान होने से उन ज्ञानों के द्वारा परस्पर प्रत्यभिज्ञान रूप विकल्पों को उत्पन्न करने का अभाव होगा। भावार्थ- जैसे भिन्न-भिन्न सन्तान होने से जिनदत्त के देखे हुए पदार्थों का देवदत्त स्मरण वा प्रत्यभिज्ञान नहीं कर सकता, उसी प्रकार स्पर्श इन्द्रिय द्वारा ज्ञात विषय में रसना इन्द्रिय का प्रत्यक्ष वा प्रत्यभिज्ञान नहीं होगा। परन्तु ऐसा अनुसन्धान या प्रत्यभिज्ञान होता है कि जिसको मैंने प्रत्यक्ष देखा था उसी का स्वाद ले रहा हूँ। जिसका स्पर्श किया था उसी को देख रहा हूँ। अत: एक आत्मा में ज्ञान की अनेक संतानें सिद्ध नहीं हो सकतीं। __ यदि कहो कि पूर्व के अनुसंधान (प्रत्यभिज्ञान) की विकल्प वासना ही (मैंने जिसका पूर्व में स्पर्श किया था, उसी को देख रहा हूँ, इत्यादि) विकल्पजालों की उत्पादिका है तो जैनाचार्य कहते हैं कि "मैं ही इसका द्रष्टा हूँ, स्प्रष्टा (स्पर्श करने वाला) हूँ, सूंघने वाला हूँ, स्वाद लेने वाला हूँ और सुनने वाला हूँ" (जिसको मैंने देखा था उसी का स्वाद ले रहा हूँ) इत्यादि विकल्प रूप अनुसंधान (प्रत्यभिज्ञान) कैसे हो सकता है। - यदि रूपादि पाँच ज्ञान से अनन्तर (दूसरा ज्ञान) मानोगे तो उसका नियम संभाव्य (निश्चित) होना चाहिए। यदि कहो कि जिसको मैं देखता हूँ, उसी को छूता हूँ, सूंघता हूँ इस अनुसंधान का नियम कराने वाली मिथ्या संस्कार रूप वासना है। वहीं वे रूप आदि पाँच ज्ञान उस वासना को प्रबुद्ध (जाग्रत) कर देते हैं।