________________ .. तत्वावर तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 374 सत्यमद्वयमेवेदं स्वसंवेदनमित्यसत् / तद्व्यवस्थापकाभावात्पुरुषाद्वैततत्त्ववत् // 128 // न हि कुतश्चित्प्रमाणादद्वैतं संवेदनं व्यवतिष्ठते, ब्रह्माद्वैतवत् / प्रमाणप्रमेययोद्वैतप्रसंगात् / प्रत्यक्षतस्तव्यवस्थापनेनाद्वैतविरोध इति चेन, अन्यतः प्रत्यक्षस्य भेदप्रसिद्धः / अनेनानुमानादुपनिषद्वाक्याद्वा तद्व्यवस्थापने द्वैतप्रसंगः कथितः। न च स्वतः स्थितिस्तस्य ग्राह्यग्राहकतेक्षणात्। सर्वदा नापि तद्भ्रान्तिः सत्यसंवित्त्यसंभवात् // 129 // संवदेनाद्वैत भी ब्रह्माद्वैत के समान असिद्ध है। ___ यहाँ संवेदनाद्वैतवादी बौद्ध कहते हैं कि बंध, मोक्ष तथा उनके हेतु मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान आदि सिद्ध नहीं होते हैं। इसमें हमारी कोई क्षति नहीं है। अतः स्वयं अपने को ही वेदन करने वाला यह अकेला शुद्ध ज्ञान रूप तत्त्व है। यह सम्पूर्ण जगत् निरंश संवेदन स्वरूप है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार अद्वैतवादियों का कहना असत्य है, प्रशंसा योग्य नहीं है। क्योंकि अकेले उस शुद्ध ज्ञान की व्यवस्था करने वाले प्रबल प्रमाण का अभाव है। जैसे कि ब्रह्माद्वैतवादियों के नित्य ब्रह्मतत्त्व की व्यवस्था करने वाले प्रमाण का अभाव है।।१२८॥ बौद्धों के द्वारा स्वीकृत संवेदनाद्वैत तत्त्व किसी भी प्रमाण से व्यवस्थित नहीं हो पाता है, जैसे कि वेदान्तियों का ब्रह्माद्वैत पदार्थ सिद्ध नहीं होता है। यदि अद्वैत की प्रमाण से सिद्धि करोगे तो अद्वैत प्रमेय हुआ। इस प्रकार एक तो उसका साधक प्रमाण और दूसरा अद्वैत प्रमेय, इन दो तत्त्वों के हो जाने से द्वैत हो जाने का प्रसंग आता है। यदि अद्वैतवादी कहे कि प्रत्यक्ष प्रमाण से ही उस प्रत्यक्ष रूप अद्वैत की व्यवस्था हो जाती है अत: अद्वैत का विरोध नहीं अर्थात द्वैत का प्रसंग न हो सकेगा। ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि अन्य प्रमाणों से प्रत्यक्ष के भेद प्रसिद्ध हैं। अर्थात् दूसरे अनेक प्रत्यक्ष भेदों को सिद्ध कर रहे हैं। अथवा प्रत्यक्ष और परब्रह्म या संवेदनाद्वैत एकमेक नहीं हैं। अतः ज्ञान और ज्ञेय की अपेक्षा से द्वैत का प्रसंग आयेगा। इस कथन से यह भी कह दिया गया है कि अनुमान से अथवा वेद उपनिषद् के वाक्य से उस अद्वैत की व्यवस्था होना मानने पर भी द्वैत का प्रसंग आता है। अनुमान से संवेदनाद्वैत की सिद्धि करने पर साध्य और हेतु की अपेक्षा से द्वैतपने का प्रसंग आता है। तथा 'एकमेवाद्वयं ब्रह्म नो नाना' 'सर्वं ब्रह्ममयं' 'एक आत्मा सर्वभूतेषु गूढः' 'ब्रह्मणि निष्णातः' 'परब्रह्मणि लयं व्रजेत्', आदि वेदवाक्य या आगमवाक्यों से अद्वैत की सिद्धि करने पर भी वाच्यवाचकपने करके द्वैत का प्रसंग होता है। उस संवेदनाद्वैत की अपने आप सिद्धि हो जाती है, बौद्धों का यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि जगत् में सदा ग्राह्यग्राहकभाव देखा जाता है। (ज्ञान ग्राहक पदार्थ है। उससे जानने योग्य पदार्थ ग्राह्य हैं) इस द्वैत को ग्राह्यग्राहकभाव के द्वारा जानना भ्रांतिरूप है, यह भी नहीं मानना चाहिए। क्योंकि ग्राह्यग्राहक भाव के बिना तो सत्यप्रमितिका होना ही असम्भव है। अर्थात् ज्ञान का सत्यपना वास्तविक विषयं को ग्रहण करने से ही निर्णीत किया जाता है।।१२९ / /