Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 01
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 418
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 385 संशयावतारात्पर्यनुयोगो युक्त एवेति तदप्यसारं, अविचारस्य प्रमाणस्वभावव्यवस्थानप्रतिक्षेपकारिणः स्वयमुपप्लुतत्वात् / तस्यानुपप्लुतत्वे वा कथं सर्वथोपप्लवः? यदि पुनरुपप्लुतानुपप्लुतत्वाभ्यामवाच्योऽविचारस्तदा सर्व प्रमाणप्रमेयतत्त्वं तथास्त्विति न क्वचिदुपप्लुतेकांतो नाम। यथा चोपप्लवोऽविचारो वा तद्धे तुरुपप्लुतत्वानुपप्लुतत्वाभ्यामवाच्यः स्वरूपेण तु वाच्यः तथा सर्वं तत्त्वमित्यनेकांतादेवोपप्लववादे प्रवृत्तिः सर्वथैकांते तदयोगात् / नन्वेवमनेकांतोप्यनेकांतादेव प्रवर्तेत जैनाचार्य कहते हैं कि तत्त्वोपप्लववादी का यह कथन निस्सार है। क्योंकि विचारते समय तो वे प्रमाण, प्रमेयादि तत्त्वों को स्वीकार करते हैं और पीछे उसका खण्डन करते हैं। उस प्रमाण के स्वभाव की व्यवस्था का खण्डन करने वाले अविचार के भी स्वयं उपप्लुतत्व है। अर्थात् अविचार खण्डनीय है, तुच्छ स्वरूप है। यदि अविचार को तुच्छ रूप उपप्लुत नहीं मानोगे तो सभी पदार्थ उपप्लव (नाश रूप) कैसे सिद्ध होंगे? क्योंकि अविचार तत्त्व उपप्लव रहित वस्तुभूत सिद्ध हो जाता है। यदि कहो कि उपप्लुत और अनुपप्लुत के द्वारा अवाच्य (नहीं कहने योग्य) अविचार है, तब तो सर्व प्रमाण और प्रमेय भी उसी प्रकार अवाच्य हो जायेंगे। अतः क्वचित् उपप्लुत का एकान्त नहीं रह सकता। जैसे कि उपप्लव या अविचार तथा उन दोनों के कारण पर्यनुयोग (प्रश्न), संशय आदि तत्त्वोपप्लववादी के द्वारा स्वीकृत तत्त्व उपप्लव और अनुपप्लव के द्वारा कहे नहीं जाते हैं, अतः अवाच्य हैं। किन्तु फिर भी अपने स्वरूप से तो वे कहे ही जाते हैं- अत: वाच्य हैं, तब तो सम्पूर्ण प्रमाण प्रमेय आदि तत्त्व भी पर-चतुष्टय की अपेक्षा अवाच्य हैं और अपने निश्चित स्वचतष्टय की अपेक्षा वाच्य हैं, इस प्रकार अनेकान्त का प्रतिपादन करने वाले स्याद्वाद सिद्धान्त से ही उपप्लववाद की प्रवृत्ति हो सकती है। सर्वथा एकान्त में उसका अयोग (सिद्धि नहीं) है। भावार्थ- उपप्लववाद, संवेदनाद्वैत, क्षणिकत्व, नित्यत्व, शून्यवाद, अद्वैतवाद आदि सब की स्थिति (व्यवस्था) अनेकान्तवाद के आश्रय पर ही हो सकती है, सर्वथा एकान्तवाद में वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती। अनेकान्त भी अनेकान्तात्मक है ___ शंका- अनेकान्त की भी अनेकान्त से प्रवृत्ति होती है अर्थात् इस प्रकार अनेकान्त भी अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक धर्मों के द्वारा ही वस्तु का कथन करने में प्रवृत्त होता है और वह अनेकान्त भी दूसरे अनेकान्त से प्रवृत्त होगा। अतः अनवस्था दोष आने से प्रकृत (प्रकरणागत) अनेकान्त की सिद्धि कैसे हो सकती है ? तथा बहुत दूर भी जाकर एकान्त से अनेकान्त की प्रवृत्ति मानने पर सभी की अनेकान्त से सिद्धि नहीं हो सकती। अर्थात् 'सिद्धिरनेकान्तात्' 'सिद्धि अनेकान्त से होती है' यह सूत्र घटित नहीं होगा। ___ तथा प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्त कहा जाता है, ऐसा कहोगे तो ‘अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः' प्रमाण की अर्पणा से स्वीकृत अनेकान्त भी तो अनेकान्त (एकान्त नहीं) है', यह. वृहत्स्वयम्भूस्तोत्र में समन्तभद्र का वाक्य कैसे घटित होगा? तथा प्रमाण के भी अनेकान्तात्मकत्व स्वीकार करने पर अनवस्था दोष का परिहार करना शक्य नहीं है।

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