Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 01
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 425
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 392 बाधारहितोऽस्वप्नो बाध्यमानस्तु स्वप्न इति तयोर्भेदोन्वीक्ष्यते, नान्यथा। ननु चास्वप्नज्ञानस्याबाध्यत्वं यदि अत एव निश्शीयते तदेतरेतराश्रयः, सत्यऽबाध्यत्वनिशये संवेदनस्यास्वप्नकृनिश्शयस्तस्मिन् सत्यबाध्यत्वनिश्चय इति / परतोऽस्वप्नवेदनात्तस्याबाध्यत्वनिश्चये तस्याप्यबाध्यत्वनिश्शयोन्यस्मादस्वप्नवेदनादित्यनवस्थानान्न कस्यचिदबाध्यत्वनिश्चय इति केचित् / तदयुक्तं / क्वचित्स्वतः क्वचित्परतः संवेदनस्याबाध्यत्वनिशयेऽन्योन्याश्रयानवस्थानवतारात् / न च क्वचित्स्वतस्तन्निभये सर्वत्र स्वतो निश्शयः परतोऽपि वा क्वचिनिर्णीतौ सर्वत्र परत एव निर्णीतिरिति चोद्यमनवयं हेतु द्वयनियमानियमसिद्धेः। स्वतस्तन्निशये हि बहिरंगो हेतुरभ्यासादिः, परतोऽनभ्यासादिः, अंतरंगस्तु तदावरणक्षयोपशमविशेषः संप्रतीयते / तदनेन स्वप्नस्य बाधक प्रमाणों से रहित है, वह अस्वप्न (सत्यार्थ) है और जो अनुमान आदि प्रमाणों से बाधित है, वह स्वप्न है। इस प्रकार स्वप्न और अस्वप्न में भेद देखा जाता है। अन्यथा स्वप्न और अस्वप्न में भेद नहीं किया जा सकता। शंका- जागृत अवस्था में होने वाले अस्वप्न (वस्तुभूत पदार्थ) ज्ञान का निश्चय यदि अस्वप्न संवेदन से किया जाता है तो अन्योऽन्याश्रय दोष आता है। क्योंकि संवेदन के अबाधितपने का निश्चय होने पर तो संवेदन के अस्वप्नकृतपने का निश्चय होता है और अस्वप्नकृतपने के निश्चय होने पर संवेदन के अबाधितत्व का निश्चय होता है। इस प्रकार परस्पराश्रय दोष हुआ। यदि प्रकरण प्राप्त अस्वप्न ज्ञान के अबाधितत्व का दूसरे अस्वप्न ज्ञान से निश्चय करेंगे तो उसके भी अबाधितत्व का निर्णय तीसरे अस्वप्न ज्ञान से होगा और उसका निश्चय चौथे अस्वप्न ज्ञान से होगा। इस प्रकार अनवस्था दोष आयेगा। किसी के भी अबाधितत्व का निश्चय नहीं होगा। ऐसा कोई कहता है। इस शंका का समाधान करते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि ज्ञानाद्वैतवादियों का यह कहना युक्तिसंगत नहीं है- क्योंकि कहीं पर स्वतः और कहीं पर परतः संवेदन (ज्ञान) के अबाध्यत्व (प्रमाणत्व) का निश्चय हो जाने पर अन्योऽन्याश्रय दोष और अनवस्था दोष नहीं आ सकता है। कहीं पर अभ्यस्त दशा में स्वतः प्रमाण में प्रमाणता आजाने पर अभ्यास और अनभ्यास दोनों अवस्था में स्वतः ही प्रमाणता का निर्णय होता है, ऐसा कहना उचित नहीं है। और किसी स्थल में किसी जीव के परतः प्रमाण के अबाधितत्व (प्रमाणत्व) सिद्ध हो जाने पर सर्वत्र (सर्व स्थानों में) परतः ही प्रमाण का प्रमाणत्व सिद्ध होता है, ऐसी शंका करना भी निर्दोष नहीं है। क्योंकि अंतरंग और बहिरंग दोनों कारणों के नियम से सभी पदार्थों के परिणमन का नियम सिद्ध है। अर्थात् कोई भी कार्य एक कारण से नहीं होता है। अत: प्रमाण की प्रमाणता अभ्यास दशा में स्वत: और अनभ्यास दशा में परतः आती है। स्वतः निश्चय में अभ्यासादि बहिरंग हेतु हैं और अनभ्यास दशा में परतः बहिरंग कारण है। परन्तु अन्तरंग कारण तो दोनों में ही ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम विशेष ही प्रतीत होता है। व्यवहार में भी अनुभव किया जाता है कि अभ्यास दशा में मानव चलती गाड़ी में बैठ जाता है और अनभ्यास दशा में खड़ी गाड़ी में चढ़ने में भी सशंक होता है।

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