Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 01
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 438
________________ परिशिष्ट-४०५ अभावरूप मानते हैं। इस मत के अनुसार सभी प्राणियों के रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा तथा संस्कार ये पाँच स्कन्ध होते हैं, किन्तु आत्मा नहीं। ये स्कन्ध ही परलोक जाते हैं। शब्द का वाच्य विधिरूप न होकर अन्यापोहात्मक है। ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न होकर तथा पदार्थ के आकार को धारण करके अर्थ का ज्ञान करता है। संसार अनादि है तथा प्राणियों की सृष्टि ईश्वर, आत्मा या प्रकृति के द्वारा नहीं होती है। '' योगाचार - इस मत का अपर नाम विज्ञानवाद भी है। यह मत अभ्यन्तर पदार्थ (विज्ञान तत्त्व) को ही मानता है, बाह्य पदार्थ की सत्ता ही स्वीकार नहीं करता। चेतना को ही सत्य मानने के कारण इन्हें विज्ञानाद्वैतवादी भी कहते हैं। इस मत के अनुसार दृश्य जगत् मिथ्या है। बाह्य वस्तुएँ असत् हैं। वस्तु तो विज्ञान मात्र है। विचार ही समस्त ज्ञान का आदि एवं अन्त है। विचार को हटा दो तो सब कुछ (बाह्य जगत्) नष्ट होकर रह जाएगा। माध्यमिक - इस मत का अपर नाम शून्यवाद अथवा सर्वनाशिक भी है। यह जगत् शून्य है। न तो जगत् में बहिरंग पदार्थ (दृश्य जड़ पदार्थ) हैं, न ही अन्तरंग पदार्थ (आत्मा)। सर्वथा शून्यमात्र ही तत्त्व है। ऐसी मान्यता के कारण ही यह मत शून्यवाद कहलाता है। बुद्ध के मध्यम मार्ग के अनुयायी होने के कारण इन्हें माध्यमिक कहा जाता है। बुद्ध ने नैतिक जीवन में दो अन्तों को - अखण्ड तापस जीवन तथा सौम्य भोग-विलास को छोड़कर बीच के (मध्यम) मार्ग का अवलम्बन लिया, इस मध्यम मार्ग के अनुयायी माध्यमिक कहलाए। माध्यमिकों का कहना है कि वस्तुओं का वास्तविक रूप सत्ताविहीन है। इसी कारण आत्मा भी मिथ्या है- असत् है। यह जगत् मायामय है। यह विश्व व्यावहारिक रूप से ही सत्य है, पारमार्थिक रूप से नहीं। इस तरह समग्र जगत्-स्वभाव शून्य है। कारण-कार्य की कल्पना सापेक्ष है अतः असत्य है। जगत् सर्वथा अनुत्पन्न तथा अविनष्ट है। परिणाम नामक कोई वस्तु नहीं होती। उष्णता को अग्नि का स्वभाव कहना मिथ्या है। तीनों काल मिथ्या हैं। काल की समग्र कल्पना अविश्वसनीय है। न कर्म है, न कर्मफल .. इस शून्यवाद का खण्डन आचार्य विद्यानन्द ने अनेक तर्कों के माध्यम से किया है। बौद्ध पुनर्जन्म को मानते हैं। वे कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने नया जन्म धारण किया है वह यद्यपि मृत मनुष्य के कर्म का उत्तराधिकारी है तथापि है वह एक नया प्राणी। बुद्ध परलोक की सत्ता तथा पुण्यपाप को कर्मों का फल मानते थे। बुद्ध यह नहीं मानते कि इस जगत् का रचयिता ईश्वर है। यह लोक अनादि अनन्त तथा अनिर्मित है, ईश्वर नहीं है, न ही सृष्टि का कोई कर्ता है, यही बुद्ध का अनीश्वरवाद है। बुद्ध विश्व के आदि कारण एक स्रष्टा एवं कर्म के ऊपर नियंत्रण करने वाले ईश्वर की सत्ता का निषेध करते हैं। बौद्धों ने अविसंवादी तथा अज्ञात अर्थ को प्रकाशित करने वाले ज्ञान को प्रमाण माना है और कल्पना तथा भ्रान्ति से रहित ज्ञान को प्रत्यक्ष माना है। वस्तु में नाम, जाति, गुण, क्रिया आदि की योजना करना कल्पना है। प्रत्यक्ष ज्ञान कल्पना से रहित अर्थात् निर्विकल्पक होता है। प्रत्यक्ष के चार भेद हैं- इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, स्वसंवेदनप्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष /

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