Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 01
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 439
________________ परिशिष्ट- 406 स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। मानस प्रत्यक्ष की उत्पत्ति में इन्द्रियज्ञान उपादान कारण होता है और इन्द्रियज्ञान का अनन्तर विषय सहकारी कारण होता है। सब चित्त और चैत्तों का जो आत्मसंवेदन होता है वह स्वसंवेदन है। सामान्यज्ञान को चित्त और विशेषज्ञान को चैत्त कहते हैं। दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग ये चार आर्यसत्य भूतार्थ हैं। उनकी भावना (चिन्तन) करते-करते एक समय ऐसा आता है जब भावना अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है और तब भाव्यमान अर्थ का साक्षात्कारी ज्ञान उत्पन्न होता है। यही योगिप्रत्यक्ष है। यह चारों प्रकार का प्रत्यक्ष निर्विकल्पक है। बौद्धों ने प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण माने हैं। अनुमान पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्ष व्यावृत्ति वाले हेतु से उत्पन्न होता है। हेतु तीन हैं- स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धि और ये तीनों ही हेतु तीन रूप वाले हैं। उन्होंने हेतु का लक्षण त्रैरूप्य माना है। बौद्धों के यहाँ हेतु और दृष्टान्त ये दो ही अनुमान के अवयव हैं। वे पक्ष आदि के प्रयोग को अनावश्यक मानते हैं किन्तु हेतु के समर्थन को आवश्यक मानते हैं। स्वार्थ तथा परार्थ-अनुमान के दो भेद हैं। त्रिरूप लिंग को देखकर स्वयं लिंगी अर्थात् साध्य का ज्ञान करना स्वार्थानुमान है। जब पर को साध्य का ज्ञान कराने के लिए त्रिरूप हेतु का कथन किया जाता है तब उस हेतु से पर को होने वाला साध्य का ज्ञान परार्थ अनुमान कहलाता है।

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