________________ परिशिष्ट-४०२ मीमांसा दर्शन मीमांसा शब्द का अर्थ है किसी वस्तु के स्वरूप का यथार्थ विवेचन / मीमांसा दर्शन के दो भेद हैंकर्ममीमांसा और ज्ञानमीमांसा / यज्ञों की विधि तथा अनुष्ठान का वर्णन कर्ममीमांसा का विषय है। जीव जगत् और ईश्वर के स्वरूप तथा सम्बन्ध का निरूपण ज्ञानमीमांसा का विषय है। कर्ममीमांसा को पूर्व मीमांसा तथा ज्ञानमीमांसा को उत्तरमीमांसा भी कहते हैं। परन्तु वर्तमान में कर्ममीमांसा के लिए केवल मीमांसा शब्द का प्रयोग किया जाता है और ज्ञानमीमांसा को वेदान्त नाम से कहा जाता है। . महर्षि जैमिनि मीमांसादर्शन के सूत्रकार हैं। मीमांसादर्शन के इतिहास में कुमारिलभट्ट का युग स्वर्णयुग कहा जाता है। भट्ट के अनुयायी भाट्ट कहलाते हैं। प्रभाकर मिश्र भी मीमांसादर्शन के दूसरे प्रमुख आचार्य हैं उनके अनुयायी प्राभाकर कहे जाते हैं। इस प्रकार मीमांसा में भाट्ट और प्राभाकर ये दो पृथक् सम्प्रदाय हुए हैं। प्राभाकर पदार्थों की संख्या 8 मानते हैं- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, परतंत्रता, शक्ति, सादृश्य और संख्या। भाहों के अनुसार पदार्थ 5 हैं- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और अभाव। वैशेषिक नौ द्रव्य मानते हैं किन्तु भाट्ट अन्धकार और शब्द मिलाकर 11 द्रव्य मानते हैं। प्राभाकर प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापत्ति ये पाँच प्रमाण मानते हैं और भाह अनुपलब्धि-अभावसहित छह प्रमाण मानते हैं। मीमांसकों के अनुसार ज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं होता है। ज्ञान न तो स्वयं वेद्य है और न ज्ञानान्तर से वेद्य है। अतएव वह परोक्ष है। ज्ञान में प्रमाणता और अप्रमाणता कैसे आती है, इस विषय में विवाद है। न्याय-वैशेषिक दोनों को परतः, सांख्य दोनों को स्वतः तथा मीमांसक प्रामाण्य को स्वतः और अप्रामाण्य को परतः मानते हैं। मीमांसकों के अनुसार प्रत्येक ज्ञान पहले प्रमाण ही उत्पन्न होता है, बाद में यदि कारणों में दोषज्ञान अथवा बाधक प्रत्यय के द्वारा उसकी प्रमाणता हटा दी जाय तो वह अप्रमाण कहलाने लगता है। अतः जब तक कारणदोषज्ञान अथवा बाधक प्रत्यय का उदय न हो तब तक सब ज्ञान प्रमाण ही है। इसलिए ज्ञान में प्रमाणता स्वतः ही आती है किन्तु अप्रामाण्य में ऐसी बात नहीं है। अप्रामाण्य की उत्पत्ति तो परतः ही होती है। क्योंकि उसमें ज्ञान के कारणों के अतिरिक्त दोषरूपी सामग्री की अपेक्षा होती है। मीमांसकों के अनुसार कोई पुरुष सर्वज्ञ या अतीन्द्रियदर्शी नहीं हो सकता क्योंकि किसी में भी पूर्ण ज्ञान का और वीतरागता का पूर्ण विकास सम्भव नहीं है। इसलिए उन्होंने प्रत्यक्षादि पाँच प्रमाणों के द्वारा सर्वज्ञ की असिद्धि बतलाकर अभाव प्रमाण के द्वारा उसके अभाव को सिद्ध किया है। मीमांसक वेद को नित्य, अपौरुषेय और स्वतः प्रमाण मानते हैं। क्योंकि वक्ता के अभाव में दोष निराश्रय नहीं रह सकते। वेद को अपौरुषेय मानने के कारण मीमांसकों को शब्दमात्र को नित्य मानना पड़ा क्योंकि यदि शब्द को अनित्य मानते तो शब्दात्मक वेद को भी अनित्य और अपौरुषेय मानना पड़ता जो उन्हें अभीष्ट नहीं है। वेद में किसी प्रकार की अपूर्णता नहीं है अतः हमारा कर्त्तव्य वही है जिसका प्रतिपादन वेद ने किया है। मीमांसक इस जगत् को न तो अद्वैत वेदान्तियों की भाँति मिथ्या मानता है और न ही बौद्धों की भाँति क्षणिक। वह इस जगत् और इसकी वस्तुओं को सत्ता का यथार्थ रूप मानता है। वह आत्मा की सत्ता