Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 01
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 434
________________ परिशिष्ट-४०१ योग दर्शन इस दर्शन के प्रवर्तक हैं महर्षि पतञ्जलि / प्रसिद्ध कृति है- योगसूत्र / योग शब्द के अनेक अर्थ हैं। योग शब्द का एक अर्थ जोड़, मिलाना है (युजिर् योगे); योग शब्द 'युज् समाधौ' से भी सिद्ध होता है। योगदर्शन में यह शब्द दोनों ही अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। योगशास्त्र के चार व्यूह हैं। जिस प्रकार चिकित्साशास्त्र में रोग, रोगहेतु, आरोग्य और औषध- ये चार व्यूह हैं उसी प्रकार योगदर्शन में संसार, संसारहेतु, मोक्ष और मोक्षोपाय- ये चार व्यूह माने जाते हैं। दुःखमय संसार हेय है, प्रकृति का संयोग दुःखमय संसार का हेतु है। प्रकृति के संयोग की आत्यन्तिक निवृत्ति ही मोक्ष है और उसका उपाय है- सम्यग्दर्शन। क्लेशों से मुक्ति पाने और चित्त को समाहित करने के लिए योग के आठ अंगों का अभ्यास करना आवश्यक है। (1) यम - यम का अर्थ है संयम, ये पाँच हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। (2) नियम - नियम भी पाँच हैं- 1. शौच-अन्तर्बाह्य शुद्धि, 2. सन्तोष, 3. तप, 4. स्वाध्याय और 5. ईश्वर प्रणिधान। (3) आसन - स्थिरता और सुखपूर्वक एक ही स्थिति में बहुत देर तक बैठने का नाम आसन है। .ध्यान के लिए सिद्धासन, पद्मासन, सुखासन, स्वस्तिकासन आदि अनेक साधन हैं। (4) प्राणायाम - श्वास और प्रश्वास की गति के विच्छेद का नाम प्राणायाम है। (5) प्रत्याहार - इन्द्रियों को रूप, रस आदि अपने-अपने विषयों से हटाकर अन्तर्मुखी करने का नाम प्रत्याहार है। (6) धारणा - चित्त को नाभिचक्र, आज्ञाचक्र आदि किसी स्थान में स्थिर कर देना धारणा है। - (7) ध्यान - किसी स्थान में ध्येय वस्तु का ज्ञान जब तेलधारावत् एक प्रवाह में संलग्न होता है, तब उसे ध्यान कहते हैं। ध्यान में ध्यान, ध्येय और ध्याता का पृथक्-पृथक् भान होता है। (8) समाधि - जब ध्यान ही ध्येय के आकार में भासित हो और अपने स्वरूप को छोड़ दे तो वही समाधि है। समाधि में ध्यान और ध्याता का भान नहीं होता, केवल ध्येय रहता है। . - योगदर्शन के अनुयायी क्लेश, कर्म, कर्मों के फल और उनसे उत्पन्न वासनाओं से असंस्पृष्ट एक विशेष प्रकार के पुरुष को ईश्वर कहते हैं। उसका श्रेष्ठ नाम प्रणव = ॐ है। ओम् के अर्थसहित जप से अपने स्वरूप का साक्षात्कार और योग के विघ्नों का नाश होता है। सांख्यदर्शन की भाँति यह भी आत्मा को कूटस्थ नित्य मानता है; पुनर्जन्म, कर्मफल और परलोक में विश्वास करता है। ईश्वर को सृष्टिकर्ता नहीं मानता। वेद को प्रामाणिक मानता है। योगदर्शन सांख्य के पच्चीस तत्त्वों को अंगीकार करके उसमें एक ईश्वर तत्त्व को जोड़कर 26 तत्त्व मानता है इसलिए योग सेश्वर सांख्य कहलाता है। सांख्य और योग दोनों समान विद्या के प्रतिपादक शास्त्र हैं। सांख्य अध्यात्मविद्या का सैद्धान्तिक रूप है, योग उसका व्यावहारिक रूप। दोनों दर्शन एक दूसरे के पूरक हैं। योगदर्शन भी सांख्य की तरह प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन प्रमाण मानता है।

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