Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 01
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 430
________________ परिशिष्ट-३९७ वार्तिक : श्लोकबद्धं वार्तिकं'। मूल ग्रन्थकार से कथित तथा उनके हृदयगत गूढ अर्थों की एवं मूल ग्रन्थकर्ता से नहीं कहे गये अतिरिक्त भी अर्थों की अथवा दो बार कहे गये प्रमेय की चिन्तना को वार्तिक कहते हैं। 'उक्तानुक्तदुरुक्तचिन्ता वार्तिकम्।' 'उक्तनुक्तदुरुक्तानां चिन्ता यत्र प्रवर्तते। तं ग्रन्थं वार्तिकं प्राहुर्वार्त्तिकज्ञा मनीषिणः॥ विपक्ष : साध्य से विरुद्ध धर्म वाले धर्मी को विपक्ष कहते हैं। विप्रतिषेध : पूरी-पूरी शक्ति वाले अनेक विरुद्ध पदार्थों के विरोध करने को विप्रतिषेध कहते हैं। विप्रतिषेध वाले दो पदार्थ एक जगह नहीं रह सकते हैं। जहाँ घट है वहाँ घटाभाव नहीं और जहाँ घटाभाव है वहाँ घट नहीं। एक की विधि से दूसरे का निषेध उसी समय हो जाता है और दूसरे की विधि से एक का निषेध तत्काल हो जाता है। व्यतिरेक : साध्य के अभाव में साधन का अभाव होना व्यतिरेक कहलाता है। व्यतिरेक प्रधान दृष्टान्त को व्यतिरेक दृष्टान्त कहते हैं। जैसे जहाँ अग्नि नहीं, वहाँ धूम भी नहीं होता, यथा जलाशय। व्याप्य-व्यापक : जो सब में रहे वह व्यापक और अल्प में रहे वह व्याप्य कहलाता है। जैसे वृक्षपना व्यापक है क्योंकि वह आम, नीम, शीशम आदि सभी जाति के वृक्षों में रहता है और शीशमपना व्याप्य है क्योंकि वह केवल शीशम जाति के वृक्षों में ही रहता है। व्यापक को गम्य और व्याप्य को गमक भी कहा जाता है। सपक्ष : साध्य के समान धर्म वाले धर्मी को सपक्ष कहते हैं। समर्थन : हेतु के असिद्धत्व आदि दोषों का परिहार करके अपने साध्य के साधन करने की सामर्थ्य के निरूपण करने में प्रवीण वचन को समर्थन कहते हैं। * साक्षात्सम्बन्ध : जिसके साथ इन्द्रियों का व्यवधान रहित सम्बन्ध होता है, वह साक्षात्सम्बन्ध है। * सिद्धसाध्यता : अनुमान वा किसी ज्ञान के द्वारा सिद्ध हुए को सिद्ध करना सिद्धसाध्यता है। * स्वरूपासिद्ध : जिसकी सत्ता स्वरूप से ही असिद्ध है, उस हेतु को स्वरूपासिद्ध कहते हैं। जैसे शब्द स्वरूप से कर्णेन्द्रियगम्य है, उसे चाक्षुष कहना स्वरूप से ही असिद्ध है। स्वार्थानुमान : दूसरे के उपदेश बिना स्वतः ही साधन से साध्य का जो अपने लिए ज्ञान होता है, उसे स्वार्थानुमान कहते हैं। हेत्वाभास : सदोष हेतु हेत्वाभास है। असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिंचित्कर ये चार हेत्वाभास के भेद हैं। (1) जिस हेतु की सत्ता का अभाव हो अथवा निश्चय न हो उसे असिद्ध हेत्वाभास कहते हैं। (2) साध्य से विपरीत पदार्थ के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित हो उसे विरुद्ध हेत्वाभास कहते हैं। (3) जो हेतु पक्ष-सपक्ष के समान विपक्ष में भी बिना किसी विरोध के रहता है उसे अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं। (4) साध्य के सिद्ध होने पर और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित होने पर प्रयुक्त हेतु अकिंचित्कर हेत्वाभास कहलाता है।

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