Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 01
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 421
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 388 वाच्यवाचकतापायो वाच्यत्तद्व्यवस्थितिः। परावबोधनोपायः को नाम स्यादिहान्यथा? // 152 // सोयं तयोः वाच्यवाचकयोः ग्राह्यग्राहकभावादेनिराकृतिमाचक्षाणस्तद्भावं साधयत्येवान्यथा तदनुपपत्तेः। संवृत्या स्वप्नवत्सर्वं सिद्धमित्यतिविस्मृतम्। निःशेषार्थक्रियाहेतोः संवृतेर्वस्तुताप्तितः // 153 // यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत्। सांवृतं रूपमन्यत्तु संविन्मात्रमवस्तु सत् // 154 // 'स्वप्नवत्सांवृतेन रूपेण ग्राह्यग्राहकभावाभावो ग्राह्यो बाध्यबाधकभावो बाध्यः कार्यकारणभावोऽपि कार्यों वाच्यवाचकभावो वाच्य' इति ब्रुवाणो विस्मरणशील:, स्वयमुक्तस्य वाच्य-वाचक का अभाव यदि वाच्य है तब तो वाच्य की सिद्धि हो जाती है। अर्थात् वाच्यवाचक का अभाव शिष्य को समझाया जाता है। अतः वाच्य और वाचक भाव है। अन्यथा (यदि वाच्यवाचक का अभाव वाच्य नहीं है) तो वाच्य-वाचक के अभाव को समझाने का उपाय क्या है? // 152 // भावार्थ- ग्राह्य-ग्राहक भाव, कार्य-कारण भाव, बाध्य-बाधक भाव, वाच्य-वाचक भाव आदि की सिद्धि हो जाती है। इनका अभाव सिद्ध करने में भी सद्भाव सिद्ध हो जाता है। क्योंकि ग्राह्यग्राहक भाव के अभाव का यदि अस्तित्व नहीं है तो उनका खण्डन कैसे किया जाता है। तथा वाच्यवाचक के तथा ग्राह्य-ग्राहक भावादि के निराकरण को कहने वाला वह यह बौद्ध ग्राह्य-ग्राहक आदि भावों के सद्भाव को सिद्ध करता ही है। अन्यथा (यदि वाच्य-वाचक भाव नहीं है तब तो) उनका निषेध करना भी सिद्ध नहीं हो सकता है। जो अर्थ क्रियाकारी है वही परमार्थ सत् है, संवेदनाद्वैत अवस्तु है ___ संवेदनाद्वैतवादी कहता है कि परमार्थ रूप से ग्राह्य-ग्राहक आदि भाव का हम खण्डन करते हैं। किन्तु संवृति (व्यवहार) से स्वप्न के समान कल्पनासिद्ध ग्राह्य-ग्राहक आदि भाव का खण्डन नहीं करते हैं। क्योंकि ग्राह्य-ग्राहक आदि भाव सर्व कल्पनासिद्ध हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धों का कथन अतिविस्मृति (भूल) से युक्त है। क्योंकि सम्पूर्ण अर्थक्रिया के कारणभूत संवृति रूप संव्यवहार को वस्तुत्व की प्राप्ति होती है। अर्थात् संवृति अर्थक्रिया की निमित्त है, अत: वस्तुभूत है। जो अर्थक्रियाकारी है, वही परमार्थ सत् है। परन्तु इससे विपरीत जो अर्थक्रिया से रहित सांवृत (व्यवहार) है, उपचार मात्र से कल्पित है, वह संवेदनाद्वैत अवस्तु है, असत् है अर्थात् परमार्थभूत वस्तु नहीं है॥१५३-१५४॥ "स्वप्न के समान कल्पित व्यवहार के द्वारा ग्राह्य-ग्राहक भाव का अभाव भी ग्राह्य हो जाता है। बाध्यबाधक भाव भी बाध्य हो जाता है, कार्यकारणभाव भी कार्य हो जाता है और वाच्यवाचकभाव भी शब्दों के द्वारा वाच्य हो जाता है।" इस प्रकार कहने वाला संवेदनाद्वैत भी विस्मरणशील है। अर्थात्

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