________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 389 सांवृतरूपानर्थक्रियाकारित्वस्य विस्मरणात्। तथा ह्यशेषग्राह्यग्राहकताद्यर्थक्रियानिमित्तं यत्सांवृतं रूपं तदेव परमार्थसत् तद्विपरीतं तु संवेदनमात्रमवस्तु सदिति दर्शनांतरमायातम्। संवृतं चेत्क्व नामार्थक्रियाकारि च तन्मतम्। ___हंत सिद्धं कथं सर्वं संवृत्या स्वप्नवत्तव // 155 // ग्राह्यग्राहकभावाद्यर्थक्रियापि सांवृती न पुनः पारमार्थिकी यतस्तन्निमित्तं सांवृतं रूपं परमार्थसत् सिद्धयेत् / तात्त्विकी त्वर्थक्रिया स्वसंवेदनमात्रं, तदात्मकं संवेदनाद्वैतं कथमवस्तु सन्नाम? ततोऽर्थक्रियाकारि सांवृतं चेति व्याहतमेतदिति यदि मन्यसे, तदा कथं स्वप्नवत् संवृत्या सर्वं सिद्धमिति ब्रूषे ? तदवस्थत्वाव्याघातस्य सांवृतं सिद्धं चेति। वह अपनी पूर्व की प्रतिज्ञा को भूल जाता है। तभी तो स्वयं कही हुई “कल्पित स्वभाव कभी अर्थक्रिया को नहीं करते हैं" इस बात को भूल गया है। अर्थात् पूर्व में बौद्ध ने कहा था कि व्यवहार से कल्पित पदार्थ अर्थक्रिया नहीं करता है। और अब कहते हैं कि स्वप्न में चलना, बोलना आदि कल्पित अर्थक्रिया होती है। यह उनका विस्मरणपना ही है। तथा जैन सिद्धान्त में स्पष्ट किया गया है कि जो व्यवहार में स्वीकृत पदार्थ सम्पूर्ण ग्राह्य-ग्राहकतादि भाव अर्थक्रिया का निमित्त है वह सर्व सांवत रूप व्यवहार परमार्थ सत् है, वस्तुभूत है। और उससे विपरीत अर्थक्रिया नहीं करने वाला केवल निरंश संवेदन मात्र है- वह वस्तुभूत सत् पदार्थ नहीं है। यदि उसको परमार्थ सत् मानेंगे तो दर्शनान्तर (स्याद्वाद की सिद्धि) की सिद्धि हो जाती है, स्याद्वाद की शरण लेनी पड़ती है। ... यदि संवृत (कल्पित व्यवहार) अर्थक्रियाओं को करता है, ऐसा मन्तव्य हो तो जैनाचार्य कहते हैंबड़े खेद की बात कि पूर्व में जो 'सम्पूर्ण पदार्थ व्यावहारिक कल्पना से स्वप्न के समान अर्थक्रिया करते हुए प्रसिद्ध हैं' यह कैसे हो सकता है। अर्थात्- ऐसा मानने पर तो आप (बौद्ध) व्यवहार से किसी पदार्थ को सिद्ध नहीं कर सकते॥१५५॥ बौद्ध कहते हैं कि ग्राह्य-ग्राहक भाव आदि अर्थक्रियाएँ भी कल्पित हैं, पुनः पारमार्थिक नहीं हैं, जिससे कि उन अर्थक्रियाओं का कारणभूत सांवृत (व्यवहार) रूप परमार्थ सिद्ध हो सकता है संवेदन मात्र अर्थक्रिया ही तात्त्विकी है। अतः तदात्मक (अर्थक्रिया के साथ तादात्म्य सम्बन्ध रखने वाला) संवेदनाद्वैत अवस्तु कैसे हो सकता है? अर्थात् संवेदनाद्वैत तत्त्व तो वस्तु स्वरूप ही है। इसलिए अर्थक्रिया को करने वाला है, 'वह सांवृत है, कल्पित है' इस नियम में व्याघात दोष है। जैनाचार्य कहते हैं कि जो अर्थक्रिया को करता है वह परमार्थभूत है, कल्पित नहीं है और जो अर्थक्रिया को नहीं करता है वह कल्पित है। ऐसा मानते हो तो 'स्वप्न के समान सम्पूर्ण तत्त्व व्यवहार दृष्टि से सिद्ध हैं' इस बात को कैसे कह सकते हैं? अत: व्याघात दोष का वैसे का वैसा अवस्थान होने से सांवृत (कल्पित) सिद्ध कैसे हो सकता है। अर्थात् जो सिद्ध है वह कल्पित कैसे स्वप्नसिद्ध (कल्पित पदार्थ) अवश्य सिद्ध नहीं हैं। अन्यथा (यदि स्वप्न को भी वास्तविक सिद्ध मान लेंगे तो) दूसरा कौन अस्वप्न पदार्थ सिद्ध हो सकता है। अर्थात् जागृत दशा और स्वप्न दशा में कोई अन्तर -- नहीं रहेगा।