________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 387 ग्राह्यग्राहकबाध्यबाधककार्यकारणवाच्यवाचकभावादिस्वरूपेण नास्ति संवेदनं संविन्मात्राकारतयास्तीत्यनेकांतोभीष्ट एव संवेदनाद्वयस्य तथैव व्यवस्थितेाह्याद्याकाराभावात्सद्वितीयतानुपपत्ते: सर्वथैकांताभावस्य सम्यगेकांतानेकांताभ्यां तृतीयतानुपपत्तिवत् / इति न प्रातीतिकं, ग्राह्यग्राहकभावादिनिराकरणस्यैकांततोऽसिद्धेः। ग्राह्यग्राहकशून्यत्वं ग्राह्यं तद्ग्राहकस्य चेत् / ग्राह्यग्राहकभावः स्यादन्यथा तदशून्यता // 149 // बाध्यबाधकभावोऽपि बाध्यते यदि केनचित् / बाध्यबाधकभावोऽस्ति नोचेत्कस्य निराकृतिः॥१५०॥ कार्यापाये न वस्तुत्वं संविन्मात्रस्य युज्यते। कारणस्यात्यये तस्य सर्वदा सर्वथा स्थितिः / / 151 // (बौद्ध कहता है कि) ग्राह्य-ग्राहक, बाध्य-बाधक, कार्य-कारण और वाच्य-वाचक स्वरूप से वस्तु का संवेदन नहीं होता है। अपितु केवल शुद्ध संवित्ति के आकार से ही संवेदन होता है। इस प्रकार अनेकान्त इष्ट ही है तथा ऐसा करने पर अद्वैत संवेदन की व्यवस्थापूर्वक सिद्धि हो जाती है। क्योंकि ग्राह्य-ग्राहक आदि आकारों के अभाव से सद्वितीयता (द्वैतपना) सिद्ध नहीं होता है। अर्थात् ग्राह्य-ग्राहक आदि द्वैत की उत्पत्ति नहीं है। ग्राह्यादि आकारों से रहित अकेला संवेदनाद्वैत सिद्ध होता है। जैसे स्याद्वाद सिद्धान्त में सर्वथा एकान्त का अभाव समीचीन एकान्त और समीचीन अनेकान्त से भिन्न तीसरा पदार्थ सिद्ध नहीं है। अर्थात जैसे सर्वथा एकान्त का अभाव ही स्याद्वाद सिद्धान्त का अनेकान्त है, उसी प्रकार ग्राह्य-ग्राहक आदि सर्व आकारों के वेदन का अभाव ही बौद्ध मत में संवेदनाद्वैत है। जैनाचार्य कहते हैं कि बौद्ध का संवेदनाद्वैत प्रमाणसिद्ध प्रतीतियों से सिद्ध नहीं है अर्थात् प्रतीतिविरुद्ध है। संवेदनाद्वैत की प्रतीति नहीं हो रही है। क्योंकि सर्वथा एकान्त रूप से ग्राह्य ग्राहक, कार्यकारण भाव आदि का निराकरण करना सिद्ध नहीं है। ग्राह्य-ग्राहक भाव से शून्यपने को यदि उसके ग्रहण करने वाले ज्ञान का ग्राह्य (पदार्थ) मानोगे तब तो ग्राह्य-ग्राहक भाव सिद्ध हो ही जाता है। अर्थात् ग्राह्य ग्राहक भाव से शून्य पदार्थ ग्राह्य ज्ञान के द्वारा ग्रहण से ग्राहकभाव की सिद्धि हो जाती है। अन्यथा (यदि ग्राह्य-ग्राहक भाव से रहित पदार्थ ज्ञान का विषय नहीं है तब तो) अशून्यता (ग्राह्य-ग्राहक आदि भावयुक्तता) सिद्ध हो जाती है।।१४९ // बाध्य-बाधक भाव भी किसी के द्वारा यदि बाधित होता है तब तो बाध्य-बाधक भाव का अस्तित्व सिद्ध होता है। यदि बाध्य-बाधक भाव नहीं है तो उसका खण्डन कैसे किया जाता है।।१५०॥ कार्य के अभाव में संवेदन मात्र के वस्तुपना युक्त नहीं हो सकता। क्योंकि जो अर्थक्रियाओं को करता है, वही वस्तुभूत पदार्थ है। यदि उस संवेदन के कारण का अभाव माना जायेगा तो उस संवेदन की सर्वकाल में सर्व प्रकार से स्थिति रहेगी। अतः कार्य-कारण भाव सिद्ध होता है॥१५१॥