Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 01
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 405
________________ . तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 372 नानुमानात्कस्यचिच्छक्तिप्रतिनियमसिद्धिर्यतोऽन्वयव्यतिरेकप्रतिनियमः कार्यकारणभावे प्रतिनियमनिबंधनः सिद्ध्येत् / तत एव संवृत्यान्वयव्यतिरेको यथादर्शनं कारणस्य कार्येणानुविधीयते न तु यथातत्त्वमिति चेत्, कथमेवं कार्यकारणभावः पारमार्थिकः? सोऽपि संवृत्येति चेत्, कुतोऽर्थक्रियाकारित्वं वास्तवं? तदपि सांवृतमेवेति चेत्, कथं तल्लक्षणवस्तुतत्त्वमिति न . किंचित्क्षणक्षयैकांतवादिनः शाश्वतैकांतवादिन इव पारमार्थिकं सिद्धयेत्। तथा सति न बंधादिहेतुसिद्धिः कथंचन। सत्यानेकांतवादेन विना क्वचिदिति स्थितम् // 127 / / न सत्योऽनेकांतवादः प्रतीतिसद्भावेऽपि तस्य विरोधवैयधिकरण्यादिदोषोपद्रुतत्वादिति का अ-कार्य होगा। सब कार्यों में से किसी भी एक कार्य से सब कारणों का अनुमान किया जा सकेगा। अथवा किसी भी कार्य से चाहे जिस तटस्थ अकारण का अनुमान किया जा सकेगा। कोई भी व्यवस्था न रहेगी। इस प्रकार बौद्धों के अनुमान से भी किसी भी कार्य या कारण की शक्तियों का प्रत्येक रूप से नियम करना सिद्ध नहीं हो पाता है, जिससे कि आपके द्वारा पहले कहा गया अन्वयव्यतिरेकों का प्रतिनियम करना कार्यकारण भाव में प्रतिनियम का कारण सिद्ध हो सकता है। अर्थात् बौद्धों के द्वारा स्वीकृत अन्वयव्यतिरेक तो कार्यकारण शक्तिरूप योग्यता का नियामक नहीं हो सकता है। बौद्ध कहता है, इसीलिए हम वास्तविक अन्वय-व्यतिरेकों को नहीं मानते हैं। केवल व्यवहार से ही कार्यकारण व्यवस्था है। तात्त्विक व्यवस्था का अतिक्रमण नहीं कर परमार्थ से न कोई किसी का कारण है, न कोई किसी का कार्य है। जैसा लोक में देखा जाता है, वैसा कार्य के द्वारा कारण का अन्वय व्यतिरेक ले लिया जाता है। जैनाचार्य कहते हैं कि यदि बौद्ध ऐसा कहेंगे तो संसार में प्रसिद्ध कार्यकारणभाव वास्तविक कैसे माना जावेगा? यदि आप उस कार्यकारण भाव को भी व्यवहार से मानेंगे (वास्तविक रूप से न मानकर असत्य कहेंगे) तो पदार्थों का अर्थक्रियाकारीपना वस्तुभूत कैसे होगा? जल में स्नान, पान, अवगाहन आदि क्रियाएँ होती हैं। घट से जलधारण आदि क्रियाएँ होती हैं, अग्नि से दाह होती है इत्यादि अर्थक्रियाएँ तो वास्तविक कार्यकारण भाव मानने पर ही बन सकती हैं। यदि आप उस अर्थक्रिया करने को भी केवल व्यावहारिक कल्पना ही कहोगे (यानी जलधारण करना, स्नान करना आदि कुछ भी वस्तुभूत नहीं है) तब तो उस अर्थक्रियाकारीपन लक्षण से वास्तविक तत्त्वों की सिद्धि आप कैसे कर सकेंगे? इस प्रकार क्षणिकत्व का एकान्त कहने वाले बौद्धों के यहाँ कुछ भी तत्त्व परमार्थ स्वरूप सिद्ध नहीं होगा, जैसे कि कूटस्थ नित्य को ही एकान्त से कहने वाले के कोई वास्तविक पदार्थ सिद्ध नहीं हो पाता है। स्याद्वाद निर्दोष है उस प्रकार एकान्त पक्ष के मानने पर बंध, मोक्ष आदि के हेतुओं की सिद्धि किसी प्रकार भी नहीं हो सकती है। सत्यभूत अनेकान्तवाद के बिना किसी भी मत में बन्ध, मोक्ष आदि की व्यवस्था नहीं बनती है॥१२७॥ 'स्याद्वाद दर्शन में कथित अनेकान्तवाद यथार्थ नहीं है। क्योंकि कतिपय प्रतीतियों के होने पर भी वह अनेकान्त अनेक विरोध, वैयधिकरण्य, संशय, सङ्कर, व्यतिकर, अनवस्था, अप्रतिपत्ति और अभाव इन आठ दोषों से ग्रसित है।' इस प्रकार एकान्तवादियों को नहीं मानना चाहिए। क्योंकि सर्वथा एकान्तपक्ष में ही विरोध

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