Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 01
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 404
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३७१ शालिबीजादिकारणत्वसिद्धिरिति / तदनुमानात् प्रत्यक्षप्रतीते तस्य तत्कार्यत्वे समारोपः कस्यचिद्व्यवच्छिद्यत इत्यप्यनेनापास्तं, स्वयमसिद्धात्साधनात् तद्व्यवच्छेदासंभवात् / तदनंतरं तस्योपलंभात्तत्कार्यत्वसिद्धिरित्यपि फल्गुप्रायं, शाल्यंकुरादेः पूर्वाखिलार्थकार्यत्वप्रसंगात् / शालिबीजाभावे तदनंतरमनुपलंभान्न तत्कार्यत्वमिति चेत्, साधनाभावेंगाराद्यवस्थाग्नेरनंतरं धूमस्यानुपलब्धेरग्निकार्यत्वं माभूत् / सामग्रीकार्यत्वाद्धमस्य नानिमात्रकार्यत्वमिति चेत्, तर्हि सकलार्थसहितशालिबीजादिसामग्रीकार्यत्वं शाल्यंकुरादेरस्तु विशेषाभावात् / तथा च न किंचित्कस्यचिदकारणमकार्यं वेति सर्वं सर्वस्मादनुमीयेतेति वा कुतश्चित् किंचिदिति बौद्ध कहते हैं कि प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा जाने गये वस्तुभूत पदार्थों में उत्पन्न संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और अज्ञानरूप समारोप को अनुमान ज्ञान दूर करता है। इतने ही अंश से अनुमानज्ञान प्रमाण है, क्योंकि समारोप का विच्छेद करना ही अनुमान ज्ञान का कार्य है। अर्थात् कदाचित् विपरीत समारोप हो जाता है तो पूर्वोक्त अनुमान से उस समारोप का व्यवच्छेद मात्र कर दिया जाता है। कार्यता और कारणता शक्तियों का प्रतिभास करना तथा प्रतिनियम करना ये सब प्रत्यक्ष के द्वारा ही जान लिये जाते हैं। अतः पूर्व अनुमान में साध्यसम और अन्योन्याश्रय दोष नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कथन करने वाले बौद्ध भी इसी दोषोत्थापन से निराकृत हो जाते हैं। क्योंकि जब तक बौद्धों का हेतु ही स्वयं सिद्ध नहीं है तो ऐसे असिद्ध हेतु से उस समारोप का निराकरण करना असम्भव है। . उस शालि बीज के अव्यवहित उत्तरकाल में वह चावलों का अंकुर पैदा होता हुआ देखा जाता है। इस अन्वयरूप हेतु से शालि अंकुर को उस शालि बीज का कार्यपना सिद्ध हो जाता है। बौद्धों का यह कहना भी व्यर्थ ही है। क्योंकि ऐसा मानने पर शालि अंकुर के पहले काल में रहने वाले संपूर्ण तटस्थ पदार्थों को कारणता का प्रसंग आयेगा। (क्योंकि शालिबीज, गेहूँ, कुलाल, कृषक आदि का भी वही काल है।) यदि. सौगत, धानबीज के न होने पर गेहूँ आदि से उनके अव्यवहित उत्तरकाल में धान अंकुर पैदा होता हुआ नहीं देखा जाता है, इस व्यतिरेक की सहायता से उसके कार्यपन न होने की सिद्धि करेंगे तो गीले ईन्धन के न होने पर अंगारा; जला हुआ कोयला और तपे हुए लोहपिण्ड की अग्नि के अव्यवहित उत्तरकाल में धूम पैदा हुआ नहीं देखा जाता है, अत: धूम भी अग्नि का कार्य न होगा। भावार्थ- कारण के अभाव होने पर कार्य के न होने मात्र से कार्यता का यदि निर्णय कर दिया जावे तो अग्नि का कार्य धूम न हो सकेगा। क्योकि अङ्गार (कोयले की अग्नि) के रहते हुए भी धूम नहीं होता है। 'अग्नि के न होने पर धूम का न होना ऐसा होना चाहिए था। तब कहीं धूम का कारण अग्नि बनती। यदि बौद्ध इसका उत्तर इस प्रकार देते हों कि गीला ईंधन, अग्नि, वायु आदि कारणसमुदायरूप सामग्री का कार्य धूम है, केवल अग्नि का ही कार्य नहीं है। अतः हमारा व्यतिरेक असत्य नहीं हो सकता है। अत: उस अंगारे या कोयले की अग्नि के स्थान पर पूरी सामग्री के न होने से धूम का न होना उचित है। इसके प्रत्युत्तर में आचार्य कहते हैं कि यदि बौद्ध ऐसा कहेंगे तो गेहूँ, चना, मिट्टी, खेत, खात, कुलाल आदि सम्पूर्ण पदार्थों से सहित धानबीज या जौ बीज आदि कारण समुदाय रूप सामग्री का कार्यपना धान अंकुर, जौ अंकुर आदि में हो जायेगा। इसमें कोई अन्तर नहीं है। तथा ऐसी अव्यवस्था हो जाने पर न कोई किसी का अ-कारण होगा और न कोई किसी

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