Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 01
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 406
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३७३ नानुमंतव्यं, सर्वथैकांत एव विरोधादिदोषावतारात्, सत्येनानेकांतवादेन विना बंधादिहेतूनां क्वचिदसिद्धेः। आदि दोषों का अवतार होता है। सर्व ही पदार्थ अनेक धर्मों से युक्त प्रत्यक्ष से ही जाने जा रहे हैं। वहाँ दोष सम्भव नहीं हैं। भावार्थ- स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से पदार्थ सत् है, परचतुष्टय से वह असत् है। यदि एक ही अपेक्षा से सत् और असत् दोनों होते तो विरोध दोषों की संभावना होती। सहानवस्थान, परस्परपरिहारस्थिति, वध्यघातकभाव रूप से विरोध तीन प्रकार का है। जो एक स्थान पर एक समय में एक साथ नहीं रह सकते हैं, उनमें सहानवस्थान विरोध है, जैसे- शीत और उष्ण स्पर्श एक साथ नहीं रहते हैं। जो एक स्थान में रहकर भी एक स्वरूप नहीं होते हैं उसे परस्परपरिहार विरोध कहते हैं। जैसे पुद्गल में रूप, रस आदि एक स्वरूप नहीं होते हैं। जिनमें परस्पर वध्य और घातक भाव है वह वध्यघातक विरोध है जैसे- सर्प और नेवला का विरोध। किन्तु अनेकान्तमत में कोई विरोध दोष नहीं है। दूसरा दोष वैयधिकरण्य भी स्याद्वादियों पर लागू नहीं हो सकता है। निषध पर्वत का अधिकरण न्यारा है और नील पर्वत का अधिकरण भिन्न है। ऐसी विभिन्न अधिकरणता को वैयधिकरण्य कहते हैं। किन्तु वस्तु में जहाँ ही सत्पना है, वही असत्त्व है। जहाँ नित्यत्व है, वहीं अनित्यत्व है। अतः भिन्न-भिन्न स्वभावों का एक द्रव्य में विभिन्न अधिकरणपना दोष नहीं आता है। तीसरा संशय दोष जब हो सकता था यदि चलायमान प्रतिपत्ति होती, किन्तु दोनों धर्म एक धर्मी में निर्णीत रूप से जाने जा रहे हैं तो संशय दोष का अवसर कहाँ? भाव और अभाव से समानाधिकरण्य रखता हुआ धर्मों के नियामक अवच्छेदकों का परस्पर में मिल जाना संकर है, सो अनेकांत में सम्भव नहीं है। क्योंकि अस्तित्व का नियामक स्वचतुष्टय स्वरूप तो दूसरे नास्तित्व के नियामक धर्म से एकमेक नहीं होता है। पाँचवाँ दोष व्यतिकर भी यहाँ नहीं है। विषयों का परस्पर में बदलकर चले जाने को व्यतिकर कहते हैं। सो यहाँ टंकोत्कीर्ण न्याय से उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, या अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, 'अनित्यत्व. आदि धर्म और उनके व्यवस्थापक स्वभाव सभी अपने अंश-उपांशों में ही प्रतिष्ठित रहते हैं. परिवर्तन नहीं होता है। छठा दोष अनवस्था भी अनेकान्त में नहीं आता है। मत धर्म में पन दमो सत् असत् माने जावें और उस सत् में फिर तीसरे सत् असत् माने जावें तो अनवस्था हो सकती थी। किन्तु ऐसा नहीं है। एक ही सत्पन सब धर्मों में और पूरे धर्मी में ओतप्रोत होकर व्याप रहा है। सातवाँ दोष अप्रतिपत्ति है। किसी भी धर्म का ठीक-ठीक निर्णय न होने से सामान्य जन द्विविधा में पड़ जाते हैं और पदार्थ को नहीं जान पाते हैं। यह अप्रतिपत्ति है। किन्तु अनेक धर्मों का वस्तु में पशु-पक्षियों तक को ज्ञान हो रहा है। फिर अप्रतिपत्ति कैसी? आठवाँ दोष अभाव है। जिसका ज्ञान नहीं हुआ उसका बड़ी सरलता से निषेध कर देना ही अभाव है। किन्तु अनेक स्वभावों का और पदार्थों का प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से ज्ञान हो रहा है। अतः सत्य अनेकान्त का अभाव नहीं कह सकते। इस प्रकार संक्षेप से आठ दोषों का निवारण किया गया है। अतः परमार्थभूत अनेकान्तवाद के बिना बंध और मोक्ष 'आदि के हेतुओं की किसी भी मत में सिद्धि नहीं हो पाती है, असिद्धि है।

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