________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३७६ विवादगोचरो वेद्याद्याकारो भ्रांतभासजः / अथ स्वप्नादिपर्यायाकारवद्यदि वृत्तयः // 132 // विभ्रांत्या भेदमापन्नो विच्छेदो विभ्रमात्मकः। विच्छेदत्वाद्यथा स्वप्नविच्छेद इति सिद्ध्यतु // 133 // न हि स्वप्नादिदशायां ग्राह्याकारत्वं भ्रांतत्वेन व्याप्तं दृष्टं न पुनर्विच्छेदत्वमिति शक्यं वक्तुं प्रतीतिविरोधात् / तदुभयस्य भ्रांतत्वसिद्धौ किमनिष्टमिति चेत् ? नित्यं सर्वगतं ब्रह्म निराकारमनंशकम्। कालदेशादिविच्छेदभ्रांतत्वेऽकलयद्वयम् // 134 // (बौद्ध) विवाद में पड़ा हुआ वेद्य अंश आदि का भेद या देशभेद, आकारभेद ये सब भिन्न-भिन्न आकार (पक्ष) भ्रांत ज्ञान से उत्पन्न हुए हैं (साध्य) भिन्न-भिन्न ग्राह्य आदि आकारपना होने से (हेतु) जैसे कि स्वप्न, मूर्छित या मत्त अवस्था में अनेक भिन्न-भिन्न ग्राह्य आकार वाले भ्रांतज्ञान हो जाते हैं। आचार्य कहते हैं कि यदि इस प्रकार अनुमान की प्रवृत्तियाँ करेंगे तो यह भी अनुमानसिद्ध हो जाता है कि विपर्यय या भ्रान्तज्ञान से भेद को प्राप्त हआ अर्थात सच्चे प्रमाणस्वरूप विशेष स्वसंवेदन ज्ञान का क्षण-क्षण में बदलते हए बीच में व्यवधान होना भी (पक्ष) विभ्रम स्वरूप है (साध्य) विच्छेद होने से (हेतु) जैसे कि स्वप्नों का विच्छेद (अन्वयदृष्टांत)। इस अनुमान से विच्छेद को भी भ्रमपना सिद्ध होता है। अर्थात् बौद्धजन संवेदन को मानते हुए भी संवेदन के क्षण-क्षण के परिणामों में बीच में विच्छेद पड़ जाना इष्ट करते हैं। तभी तो उनका क्षणिकत्व बन सकेगा। यदि पृथक्-पृथक् विच्छेदों का होना भी भ्रान्त हो जावेगा तो ज्ञान नित्य, एक, अन्वयी हो जावेगा। इससे तो ब्रह्मवादियों की पुष्टि होगी॥१३२-१३३॥ संवेदना द्वैतवादी स्वप्न आदि अवस्था में होने वाले ज्ञानों के - ग्राह्य अंश और ग्राहक अंशों को भ्रमरूप समझते हैं और इस दृष्टांत में ग्राह्य आकारों की भ्रान्तपने के साथ व्याप्ति को ग्रहणकर जागते हुए स्वस्थ अवस्था के ज्ञानों में भी प्रतीति में आने वाले ग्राह्य-ग्राहक अंशों का भ्रांतपना सिद्ध कर देते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि स्वप्न आदि अवस्था के ज्ञानपरिणामों में ग्राह्याकारत्व भ्रमरूप से व्याप्त नहीं देखा जाता है। अतः यह नहीं कह सकते कि स्वप्नदशा के ज्ञान आकार तो भ्रमरूप हैं और उनके बीच-बीच में पड़ा हुआ विच्छेद होना भ्रमरूप नहीं है क्योंकि ऐसा कहना प्रतीतियों से विरुद्ध है। (अतः स्वप्नज्ञान के विच्छेद को भ्रमरूप निदर्शन के द्वारा परमार्थभूत संवेदनाद्वैत के परिणामों में पड़े हुए विच्छेद का भ्रमपना सिद्ध हो जाता है)। शंका- स्वप्न और जागृत दशा इन दोनों या ग्राह्य आकार और ज्ञान सम्बन्धी सन्तान के बीच में पड़ा हुआ विच्छेद दोनों ही भ्रान्त सिद्ध हों तो क्या अनिष्ट है? उत्तर - यदि विच्छेद को भ्रान्तरूप कहोगे तो वह संवेदनाद्वैत परमब्रह्म के समान नित्य, सर्वव्यापक, निराकार और निरंश बन जावेगा, अथवा संवेदन की सिद्धि करते हुए ब्रह्माद्वैत सिद्ध हो जावेगा। क्योंकि कालविच्छेद, देशविच्छेदादि, अंशभेद का खण्डन कर देने से नित्य, व्यापक, निराकार निरंश ब्रह्म अवश्य सिद्ध हो जाता है॥१३४॥