________________ तत्वार्थश्लोकवार्निक - 315 तोयद्रव्यस्यैकत्वेऽपि शक्त्यैकत्वनानात्वपर्यायतो भेदस्याप्रतिहतत्वात्, स्पष्टास्पष्टप्रतिभासविषयस्य पादपस्यैकत्वेपि तथाग्राह्यत्वपर्यायादेिशान्नानात्वव्यवस्थितः। अन्यथा स्वेष्टतत्त्वभेदासिद्धेः सर्वमेकमासज्येत, इति क्वचित्कस्यचित्कुतशिद्भेदं साधयता लक्षणादिभेदाद्दर्शनज्ञानयोरपि भेदोऽभ्युपगंतव्यः। तत एव न चारित्रं ज्ञानं तादात्म्यमच्छति / पर्यायार्थप्रधानत्वविवक्षातो मुनेरिह // 58 // न ज्ञानं चारित्रात्मकमेव ततो भिन्नलक्षणत्वाद्दर्शनवदित्यत्र न स्वसिद्धांतविरोधः / पर्यायार्थप्रधानत्वस्येह सूत्रे सूत्रकारेण विवक्षितत्वात् / द्रव्यार्थस्य प्रधानत्वविवक्षायां तु तत्त्वतः। भवेदात्मैव संसारो मोक्षस्तद्धेतुरेव च // 59 // तथां च सत्रकारस्य क्व तद्धेदोपदेशना। द्रव्यार्थस्याप्यशुद्धस्यावांतराभेदसंश्रयात् // 60 // है, आप बहुवचनान्त है। दोनों ही पानी के नाम की अपेक्षा एक हैं परन्तु पानी की अपेक्षा दोनों में एकत्व होते हुए भी शक्ति से एकवचन, बहुवचन रूप पर्याय की अपेक्षा भेद अप्रतिहत है (भेद की निर्बाध सिद्धि है)। __ प्रतिभास की अपेक्षा भेद- स्पष्ट एवं अस्पष्ट प्रतिभास के विषय वाले वृक्षों के वृक्ष की अपेक्षा एकत्व होते हए भी स्पष्ट आदि ग्राह्यत्व पर्याय की अपेक्षा इन दोनो में नानात्व व्यवस्थित ही है। यदि संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रतिभास आदि के भेद से वस्तु में कथंचित् भेद नहीं मानेंगे तो स्व इष्ट तत्त्व में भेद की असिद्धि होने से सब एकता को प्राप्त हो जायेंगे अर्थात् अग्नि-पानी, इन्द्र-पुरन्दर आदि सब एक हो जायेंगे। अत: इस प्रकार क्वचित् कहीं पर किसी के किसी नय की अपेक्षा भेद को सिद्ध करने वालों के द्वारा लक्षण आदि के भेद से सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन में भी कथंचित् भेद स्वीकार करना चाहिए। पर्यायार्थिक नयापेक्षा दर्शन, ज्ञान और चारित्र में भी भेद है द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नहीं . अतएव इस तत्त्वार्थसूत्र में पर्यायार्थ की प्रधानता की विवक्षा होने से गृद्धापिच्छ मुनिराज के ज्ञान और चारित्र गुण तादात्म्य (एकत्व) को प्राप्त नहीं हो सकते। अर्थात् पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा ज्ञान और चारित्र में एकत्व नहीं है, पृथक्त्व है।५८॥ दर्शन के समान भिन्न लक्षण वाला होने से ज्ञान चारित्रात्मक नहीं है, ऐसा मान लेने में स्वसिद्धान्त (जैन सिद्धान्त) में विरोध भी नहीं आता है क्योंकि इस सूत्र में सूत्रकार ने पर्यायार्थिक नय के प्रधानत्व की विवक्षा की है। . द्रव्यार्थिक नय के प्रधानत्व की विवक्षा होने पर तत्त्वतः आत्मा ही संसार-मोक्ष है और आत्मा ही संसार-मोक्ष का कारण है और ऐसा होने पर अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय के अवान्तर भेदों के आश्रय से सूत्रकार के ज्ञान, दर्शन और चारित्र के भेद का उपदेश कैसे हो सकता है अर्थात् द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा ज्ञान, दर्शन और चारित्र में भेद नहीं है।५९-६०॥