________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 316 यथा समस्तैक्यसंग्रहो द्रव्यार्थिकः शुद्धस्तथावांतरैक्यग्रहोप्यशुद्ध इति तद्विवक्षायां संसारमोक्षतदुपायानां भेदाप्रसिद्धरात्मद्रव्यस्यैवैकस्य व्यवस्थानात्तद्भेददेशना क्व व्यवतिष्ठेत? ततः सैव सूत्रकारस्य पर्यायार्थप्रधानत्वविवक्षां गमयति, तामंतरेण भेददेशनानुपपत्तेः / ये तु दर्शनज्ञानयोनिचारित्रयोर्वा सर्वथैकत्वं प्रतिपद्यते ते कालाभेदाद्देशाभेदात्सामानाधिकरण्याद्वा? गत्यंतराभावात् / न चैते सद्धेतवोऽनैकांतिकत्वाद्विरुद्धत्वाच्चेति निवेदयति; कालाभेदादभिन्नत्वं तयोरेकांततो यदि। तदैकक्षणवृत्तीनामर्थानां भिन्नता कुतः // 61 // देशाभेदादभेदश्शेत्कालाकाशादिभिन्नता। सामानाधिकरण्याच्चेत्तत एवास्तु भिन्नता // 2 // सामानाधिकरण्यस्य कथंचिद्भिदया विना। नीलतोत्पलतादीनां जातु क्वचिददर्शनात् // 63 // जैसे सर्व पदार्थों को (उनकी सम्पूर्ण गुण-पर्यायों को) एकता रूप से ग्रहण करने वाला शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है ('सद्रव्यलक्षणं' सर्व सत्ता को एक रूप से ग्रहण करने वाला शुद्ध द्रव्यार्थिक) वैसे ही जीव अजीवादि अवान्तर भेदों को ऐक्य रूप से ग्रहण करने वाला अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। इस प्रकार शुद्ध अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की विवक्षा में संसार, मोक्ष और इनकी प्राप्ति के उपायों में भेद की अप्रसिद्धि (अभाव) होने से तथा एक आत्मद्रव्य का ही व्यवस्थान होने से मोक्ष के उपायों में भेद की देशना कैसे हो सकती है? इसलिए इस सूत्र का कथन सूत्रकार के पर्यायार्थिक नय की प्रधानता की विवक्षा को सूचित करता है। क्योंकि पर्यायार्थिक नय की मुख्यता की विवक्षा के बिना भेद की देशना नहीं हो सकती। "जो प्रतिवादी ज्ञान दर्शन में, ज्ञान चारित्र में सर्वथा एकत्व का प्रतिपादन करते हैंवे क्या काल के अभेद से, या देश के (प्रदेश के) अभेद होने से करते हैं"- अथवा समान अधिकरण होने से उन गुणों का अभेद कहते हैं? क्योंकि इन तीन हेतुओं के सिवाय गत्यन्तर (दूसरे हेतुओं) का अभाव है- परन्तु काल अभेद, देश अभेद और समानाधिकरण ये तीनों ही हेतु विरुद्ध और अनैकान्तिक होने से सद्हेतु नहीं हैं, हेत्वाभास हैं, ऐसा ग्रंथकार सिद्ध करते हैं। ___यदि उन ज्ञान और दर्शन में कालभेद न होने से सर्वथा अभेद मानते हो तो एकक्षणवर्ती पदार्थों में भी भिन्नता कैसे सिद्ध होगी। अर्थात् एक साथ उत्पन्न होने वाले पदार्थों में एकता का प्रसंग आयेगा। तथा प्रदेश-अभेद (एकक्षेत्रावगाही) होने से ज्ञान, दर्शन वा ज्ञान, चारित्र में अभेद मानते हो तो एक क्षेत्र में रहने वाले काल, आकाश आदि में भिन्नता कैसे सिद्ध होगी और समान (एक) अधिकरण होने से तो भिन्नता ही सिद्ध होती है क्योंकि नीलेपन और कमल आदि के कथंचित् भेद के बिना कहीं पर कभी भी सामानाधिकरण्य के दर्शन नहीं होते। अर्थात् कथंचित् भेद के बिना सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता॥६१-६२-६३॥ - 1. साध्य से विरुद्ध के साथ व्याप्ति रखने वाला विरुद्ध हेत्वाभास है। 2. पक्ष और विपक्ष दोनों में जाने वाला हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास है।