________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक-३५८ ततोऽपरिणाम्येवात्मेति न बंधादेः समवायिकारणं, नाप्यात्मांत:करणसंयोगोऽसमवायिकारणं, प्रागदृष्टं वा तद्गुणो निमित्तकारणं, तस्य ततो भिन्नस्य सर्वदा तेनासंबंधात् / कदाचित्तत्संबंधे वा नित्यैकांतहानिप्रसंगात्, स्वगुणासंबंधरूपेण नाशाद्गुणसंबंध-रूपेणोत्पादाच्चेतनत्वादिना स्थितेस्तत्त्रयात्मकत्वसिद्धेः / एतेनात्मनो भिन्नो गुणः सत्त्वरजस्तमोरूपो बंधादिहेतुरित्येतत्प्रतिव्यूढं, तेन तस्य शश्वदसंबंधेन तद्धेतुत्वानुपपत्तेः, कदाचित्संबंधे त्र्यात्मकत्वसिद्धरविशेषात् / यद्विनश्यति तद्रूपं प्रादुर्भवति तत्र यत् / तदेवाऽनित्यमात्मा तु तद्भिन्नो नित्य इत्यपि / 120 // न युक्तं नश्वरोत्पित्सुरूपाधिकरणात्मना। कादाचित्कत्वतस्तस्य नित्यत्वैकांतहानितः॥१२१ // आत्मा और मन का संयोग भी अदृष्टों की उत्पत्ति रूप बंध की या मिथ्याज्ञान और तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति में असमवायी कारण नहीं हो सकता है। तथा बंधरूप संसार की उत्पत्ति में वैशेषिकों ने आत्मा के विशेष गुण पहले के पुण्य-पापों के बंध का निमित्त कारण माना है। सो भी नहीं बन पाता है। क्योंकि आत्मा से सर्वथा भिन्न पुण्य-पाप का उस आत्मा के साथ सभी कालों में संबंध नहीं है। यदि किसी काल में आत्मा के गुणों का उस आत्मा से सम्बन्ध मानते हैं तो आत्मा के एकान्त रूप से नित्यपने की हानि हो जाती है। क्योंकि जब तक आत्मा में विवक्षित गुण उत्पन्न नहीं है, तब तक आत्मा में गुणों से असम्बन्ध करना स्वभाव है। जब विवक्षित गुण उत्पन्न हो जाते हैं, तब उस समय गुणों से असम्बन्ध होने रूप से स्वकीय पूर्व स्वभाव रूप आत्मा का नाश हुआ और नवीन गुणों के सम्बन्ध रूप स्वभाव से आत्मा का उत्पाद हुआ तथा चेतनपना, आत्मपना आदि धर्मों से आत्मा स्थित रहा है। अतः उस आत्मा को तीन लक्षण स्वरूप परिणामीपना सिद्ध होता है। प्रत्येक द्रव्य में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य ये तीन लक्षण विद्यमान हैं। ___ इस पूर्वोक्त हेतु से आत्मा से सर्वथा भिन्न मानी गयी प्रकृति के सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणरूप भाव आत्मा के बंध तथा मोक्ष आदि के कारण हैं, इसका भी निराकरण हो जाता है। क्योंकि भिन्न पड़े हुए (शाश्वत सम्बन्ध नहीं रखने वाले) गुण आकाश के समान आत्मा के उस बंध, मोक्ष होने में कारण नहीं सिद्ध हो सकते हैं। यदि किसी समय इन तीन गुणों का आत्मा से संबंध होना मान लेंगे तो तीन स्वभावपना आत्मा में बिना विशेषता के सिद्ध हो जाता है। आत्मा में जो गुण या धर्म उत्पन्न होते हैं और जो नाश होते हैं, वे ही अनित्य हैं। आत्मा तो उन गुण और स्वभावों से सर्वथा भिन्न है। अतः आत्मा न्यून, अधिक, नहीं होता है। वह अक्षुण्ण रूप से कूटस्थ नित्य बना रहता है। ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार प्रतिवादियों का कहना भी युक्तियों से रहित है। क्योंकि नाश स्वभाव और उत्पत्ति स्वभाव वाले गुण या धर्मों के आधार स्वरूप आत्मा को भी कभी-कभी होनापन है। अतः आपके मत में उस आत्मा के नित्यता के एकान्तपक्ष की हानि हो जाती है। अर्थात् कथंचित् किसी पर्याय से आत्मा उत्पन्न होता है और किसी पर्याय से नाश को प्राप्त होता है। अतः सर्वथा नित्य नहीं है॥१२०१२१॥