________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 356 एतेषामप्यनेकांताश्रयणे श्रेयसी मतिः। नान्यथा सर्वथैकांते बंधहेत्वाद्ययोगतः // 116 // नित्यत्वैकांतपक्षे हि परिणामनिवृत्तितः। नात्मा बंधादिहेतुः स्यात् क्षणप्रक्षयिचित्तवत् // 117 // परिणामस्याभावे नात्मनि क्रमयोगपद्ये तयोस्तेन व्याप्तत्वात् / पूर्वापरस्वभावत्यागोपादानस्थितिलक्षणो हि परिणामो न पूर्वोत्तरक्षणविनाशोत्पादमात्रं स्थितिमात्रं वा प्रतीत्यभावात् / स च क्रमयोगपद्ययोापकतया संप्रतीयते। बहिरंतश्श बाधकाभावान्नापारमार्थिको यतः स्वयं निवर्तमानः क्रमयोगपद्ये न निवर्तयेत्। ते च निवर्तमाने आत्मा परिणामी है सर्वथा नित्य नहीं ग्रन्थकार कहते हैं कि इन लोगों का उक्त कथन अनेकान्त मत का आश्रय लेने पर ही कल्याणकारी हो सकता है, अन्यथा नहीं। क्योंकि सर्वथा एकांत में बंध, बंध के हेतु, मोक्ष, मोक्ष के कारण आदि अवस्थाओं का अभाव है॥११६॥ ___ यदि नित्य पक्ष ग्रहण करेंगे तो आत्मा में पर्यायें होने की निवृत्ति हो जावेगी। अतः वह आत्मा बंध, बंध के कारण, मोक्षकारण और मोक्षरूप आदि पर्यायों का कारण न बन सकेगा, जैसे कि बौद्धों के द्वारा स्वीकृत एक ही क्षण में समूल नष्ट होने वाला विज्ञानस्वरूप आत्मा बंध का हेतु नहीं होने पाता है और सर्वथा क्षणिक माने गये आत्मा का (अष्टाङ्ग कारणों से) मोक्ष भी नहीं हो सकता॥११७॥ आत्मा में परिणाम होने का अभाव मानने पर कुछ अर्थ, व्यंजन-पर्यायों का क्रमरूप से होना और कितनी ही गुण रूप सहभावी पर्यायों का एक काल में होना बन नहीं सकता है। क्योंकि क्रम और यौगपद्य उस परिणाम में व्याप्त हैं। (अर्थात् परिणाम होना व्यापक है और उसके क्रम यौगपद्य व्याप्य हैं।) पूर्व स्वभावों का त्याग करना और उत्तर कालवर्ती स्वभावों का ग्रहण करना तथा स्थूलपर्याय या द्रव्यरूप से ध्रुव रहना यही परिणाम का नियत लक्षण है। पूर्वक्षणवर्ती स्वभावों का अन्वय सहित नाश हो जाना और उत्तरसमयवर्ती सर्वथा नवीन ही पर्यायों की उत्पत्ति होना परिणाम नहीं है। अथवा तीनों काल में स्थित रहना ही परिणाम नहीं है। क्योंकि इस प्रकार प्रतीति नहीं हो रही है। किन्तु तीन लक्षणवाला परिणाम ही क्रम और योगपद्यका व्यापक हो करके जाना जा रहा है। घट, पट आदि बहिरंग पदार्थों में तीन लक्षणवाला ही परिणाम बाधक प्रमाणों से रहित होकर प्रतीत हो रहा है। वह परिणाम होना वस्तु के विवर्तरूप स्वभावों पर अवलम्बित है, अतः अवास्तविक नहीं है, जिससे कि सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य रूप से स्वीकृत कल्पित पदार्थ से वह व्यापक परिणाम स्वयं निवृत्त होता हुआ अपने व्याप्य क्रम और योगपद्य की निवृत्ति नहीं करता है। (अर्थात् व्यापक परिणाम के न रहने पर सर्वथा नित्य या सर्वथा क्षणिक आत्मा में व्याप्य स्वरूप क्रमिक भाव और युगपत् भाव भी नहीं रहते हैं।) जब एकांत पक्ष में क्रम तथा यौगपद्य निवृत्त हो जाते हैं तो वे निवृत्त होते हुए सामान्य रूप से