Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 01
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 388
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३५५ कषायाद्भवन्नकषायेण, योगाद्भवन्नयोगेन स निवर्त्यत इत्ययोगगुणानंतरं मोक्षस्याविर्भावात्सयोगायोगगुणस्थानयोर्भगवदर्हतः स्थितिरपि प्रसिद्धा भवति / ____सामग्री यावती यस्य जनिका संप्रतीयते। तावती नातिवत्यैव मोक्षस्यापीति केचन // 115 / / यस्य यावती सामग्री जनिका दृष्टा तस्य तावत्येव प्रत्येया, यथा यवबीजादिसामग्री यवांकुरस्य। तथा सम्यग्ज्ञानादिसामग्री मोक्षस्य जनिका संप्रतीयते, ततो नैव सातिवर्तनीया, मिथ्याज्ञानादिसामग्री च बंधस्य जनिकेति मोक्षबंधकारणसंख्यानियमः, विपर्यपादेव बंधो ज्ञानादेव मोक्ष इति नेष्यत एव, परस्यापि संचितकर्मफलोपभोगादेरभीष्टत्वादिति केचित् / है। और कषायों से होने वाला बंध अकषायभाव से तथा योग से होने वाला बंध अयोग भाव से ध्वस्त कर दिया जाता है। इस प्रकार आत्मा के स्वाभाविक परिणाम रूप अयोग गुणस्थान के अन्त में होने वाली मुक्ति के प्रगट हो जाने से पहले तेरहवें सयोग और चौदहवें अयोग गुणस्थान में अर्हन्तदेव की स्थिति भी प्रसिद्ध हो जाती है। भावार्थ- अधिक-से-अधिक कुछ अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कम एक कोटि पूर्व वर्ष तक सर्वज्ञ भगवान् भव्य जीवों के लिए तत्त्वों का उपदेश देते हैं और कम-से-कम तेरहवें गुणस्थान में कतिपय अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं। पाँच लघु अक्षर प्रमाण अयोग गुणस्थान के अनन्तर : काल में मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। सम्पूर्ण कारणों के मिलने पर ही विवक्षित कार्य की उत्पत्ति __ जिस कार्य को उत्पन्न करने वाली जितनी कारण समुदाय रूप सामग्री अच्छी तरह देखी जाती है, वह कार्य उतनी सामग्री का उल्लंघन नहीं कर सकता है। अर्थात् उतने सम्पूर्ण कारणों के मिलने पर ही विवक्षित कार्य की उत्पत्ति हो सकेगी। मोक्षरूप कार्य के लिए भी सम्यग्दर्शन आदि तथा चारित्रगुण के स्वभावों को विकसित करने के लिए आवश्यक कहे जा रहे तेरहवें, चौदहवें, गुणस्थान में अवस्थानकाल जैसे अपेक्षित है, वैसे ही सञ्चित कर्मों का फलोपभोग होना भी माना गया है। इस प्रकार कोई (नैयायिक) कह रहे हैं॥११५॥ जिस कार्य की जितनी उपादान कारण, सहकारी कारण, उदासीन कारण, प्रेरक कारण और अवलम्ब कारणों की समुदाय रूप जितनी सामग्री उत्पादक देखी गयी है, उस कार्य के लिए उतनी ही सामग्री की अपेक्षा करना आवश्यक समझना चाहिए। जैसे कि जौ का बीज मिदी, पानी, मन्द वायु इत्यादि कारणों के समुदाय रूप सामग्री से जौ का अंकुर उत्पन्न हो जाता है, वैसे ही सम्यग्ज्ञान आदि कारण भी मोक्षरूप कार्य के जनक प्रतीत होते हैं। तथा मोक्ष रूपी कार्य उस अपनी सामग्री का उल्लंघन नहीं कर सकता। और मिथ्याज्ञान आदि कारण-समुदाय बंध के जनक हैं। इस प्रकार मोक्ष और बंध के कारणों की संख्या का नियम है। अकेले विपर्ययज्ञान से ही बंध हो जाना और केवल तत्त्वज्ञान से ही मोक्ष हो जाना इष्ट नहीं है। दूसरे रूप से भी पूर्व में एकत्रित किये हुए कर्मों के फलोपभोग, तपस्या, वैराग्य, आदि कारण समुदाय से ही मोक्ष होना इष्ट है। इस प्रकार कोई कापिल और वैशेषिक कह रहे हैं।

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