________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 332 तस्यात्मस्वरूपाघातित्वेन कथनात् / न च सर्वथानावृत्तिरेव सा सर्वदा तत्क्षयणीयकर्मप्रकृत्यभावानुषंगात् / स्यान्मतं, चारित्रमोहक्षये तदाविर्भावाच्चारित्र एवान्तर्भावो विभाव्यते। न च क्षीणकषायस्य प्रथमसमये तदाविर्भावप्रसंग: कालविशेषापेक्षत्वात्तदाविर्भावस्य। प्रधानं हि कारणं मोहक्षयस्तदाविर्भावे सहकारिकारणमंत्यसमयमन्तरेण न तत्र समर्थ, तद्भाव एव तदाविर्भावादिति। तर्हि नामाद्यपातिकर्मनिर्जरणशक्तिरपि चारित्रेऽन्तर्भाव्यते। तन्नापि क्षायिके, न क्षायोपशमिके दर्शने, नापि ज्ञाने क्षायोपशमिके क्षायिके वा तेनैव सह तदाविर्भावप्रसंगात्। . ___ न चानावरणा सा, सर्वदाविर्भावप्रसंगात् संसारानुपपत्तेः। न ज्ञानदर्शनावरणान्तरायैः प्रतिबद्धा तेषां ज्ञानादिप्रतिबंधकत्वेन तदप्रतिबंधकत्वात् / नाऽपि नामाद्यपातिकर्मभिस्तत्क्षयानंतरं ____ क्योंकि ये चार अघातिया कर्म आत्मा के स्वाभाविक अनुजीवी गुणों का घात नहीं कर सकते, अघाती होने से ऐसा कथन है। चौदह कर्मप्रकृतियों की निर्जरा करने वाली वह शक्ति सर्वथा आवरण से रहित भी नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो सर्वकाल में ही उस शक्ति से क्षय को प्राप्त होने योग्य कर्मप्रकृतियों के अभाव का प्रसंग आयेगा। शंका - चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय होने पर चौदह प्रकृतियों के नाश करने की शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। अतः इस शक्ति का अन्तर्भाव चारित्र में करना चाहिए तथा इस शक्ति के प्रादुर्भाव में कालविशेष की अपेक्षा होने से क्षीणकषाय (बारहवें) गुणस्थान के प्रथम समय में इसकी उत्पत्ति का प्रसंग भी नहीं आता है। क्योंकि इस शक्ति के आविर्भाव में प्रधान कारण मोहनीय कर्म का क्षय ही है। परन्तु वह मोहनीय कर्म का क्षय भी १२वें गुणस्थान के अन्तिम क्षण रूप सहकारी कारण के बिना उस शक्ति को प्रकट करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि सहकारी कारणों के मिलने पर ही उस शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। उत्तर - यदि मतिज्ञानावरणादि 14 प्रकृतियों के नाश करने की शक्ति का अन्तर्भाव चारित्र में किया जाता है तो नाम, वेदनीयादि अघातिया कर्मों के निर्जरण करने की शक्ति का अन्तर्भाव भी चारित्र में करना पड़ेगा किन्तु इस शक्ति का अन्तर्भाव क्षायिक सम्यक्त्व क्षौर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में नहीं हो सकता और न क्षायिक एवं क्षायोपशमिक ज्ञान में हो सकता है, क्योंकि इन ज्ञान-दर्शन में उस शक्ति का अन्तर्भाव करने पर उनके साथ ही उस शक्ति के प्रादुर्भाव का प्रसंग आता है। अघातिया कर्मों का नाश करने वाली शक्ति अनावरणा है ऐसा मानने पर तो उस अघातिया कर्मों की नाशक शक्ति का निरन्तर प्रादुर्भाव रहने से संसार की उत्पत्ति नहीं हो सकती अर्थात् प्रतिबन्धक का अभाव होने से संसार के भी अभाव का प्रसंग आयेगा। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म को भी उस शक्ति का प्रतिबन्धक नहीं कह सकते, क्योंकि इन तीनों कर्मों में तो नियत रूप से ज्ञानादि गुणों के प्रतिबन्धक होने से सर्वकर्मनाशक शक्ति का प्रतिबन्ध करने का सामर्थ्य नहीं है।