Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 01
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 368
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३३५ एवेति स तस्य कारणं प्रतीयते तथा व्यवहारादन्यथा तदभावादिति चेत्, तर्हि सयोगिके वलिरत्नत्रयमयोगिके वलिचरमसमयपर्यन्तमेकमेव तदनन्तरभाविनः सिद्धत्वपर्यायस्यानंतस्यैकस्य कारणमित्यायातम्, तच्च नानिष्टम्, व्यवहारनयानुरोधस्तथेष्टत्वात् / निशयनयाश्रयणे तु यदनन्तरं मोक्षोत्पादस्तदेव मुख्यं मोक्षस्य कारणमयोगिकेवलिचरमसमयवर्तिरत्नत्रयमिति निरवद्यमेतत्तत्त्वविदामाभासते। ततो मोहक्षयोपेतः पुमानुद्भूतकेवलः। विशिष्टकारणं साक्षादशरीरत्वहेतुना // 13 // रत्नत्रितयरूपेणायोगकेवलिनोंतिमे। क्षणे विवर्तते ह्येतदबाध्यं निशितानयात् / / 94 // व्यवहारनयाश्रित्या त्वेतत्प्रागेव कारणम् / मोक्षस्येति विवादेन पर्याप्तं तत्त्ववेदिनाम् // 15 // “कालान्तरस्थायी अग्निरूप स्व कारण से उत्पन्न धूम कालान्तरस्थायी एक ही पौगलिक पिण्ड है, अत: वह कालान्तरस्थायी अग्नि उस कालान्तरस्थायी धूम का कारण प्रतीत होती है क्योंकि ऐसा ही व्यवहार होता है, यदि ऐसा नहीं माना जाय (स्थूल कारणों को स्थूल पर्याय का उत्पादक नहीं माना जाय) तो सर्व व्यवहार का लोप हो जायेगा" यदि इस प्रकार कहोगे तो प्रकृत में भी सयोगि-केवली का क्षायिक रत्नत्रय और अयोगि केवली के चरम समय पर्यन्त रहने वाला क्षायिक रत्नत्रय एक ही है और उसी प्रकार अयोगिकेवली के अन्तिम रत्नत्रय से होने वाली प्रथम समय की सिद्धपर्याय और उस पर्याय के पश्चात् उत्तरोत्तर अनन्त काल तक होने वाली सदृश अनन्तानन्त सिद्ध पर्यायें भी एक पिण्ड * हैं। अत: वह एक ही रत्नत्रय अनन्त काल तक होने वाली सिद्ध पर्यायों का कारण है ऐसा सिद्ध होता ही है। और इस प्रकार का कार्य-कारण भाव स्याद्वादियों को अनिष्ट भी नहीं है, क्योंकि व्यवहार नय की प्रधानता से ऐसा कार्य-कारण भाव इष्ट होता ही है। परन्तु निश्चय नय का आश्रय लेने पर तो जिस रत्नत्रय के अव्यवहित उत्तर काल में प्रथम मोक्षपर्याय उत्पन्न होती है, वहीं अयोग केवली का चरम समयवर्ती रत्नत्रय मोक्ष का मुख्य (प्रधान) कारण है, यह सिद्धान्त तत्त्वपरीक्षक विद्वानों को निर्दोष अवभासित हो रहा है। __ निश्चय नय से यह निर्बाध सिद्ध है कि जिसके मोहकर्म का नाश हो गया है और जो केवलज्ञान से युक्त है ऐसी आत्मा ही मुक्ति का विशिष्ट कारण है क्योंकि अयोगि केवली के अन्तिम समय में साक्षात् अशरीर के हेतुभूत रत्नत्रय रूप से आत्मा ही परिणमन करता है॥९३-९४ // तथा व्यवहार नय की प्रधानता से तो पूर्व का रत्नत्रय ही मोक्ष का कारण है- अतः तत्त्वज्ञ पुरुषों को विवाद करने ' से कोई प्रयोजन (सिद्धि) नहीं है।९५॥

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