________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 339 तद्वद्दोषोपीत्यापतितं, तत्कृतादृष्टस्यैव स्थितेः। न चैतद्युक्तं, प्रतीतिविरोधात् / यदि पुनः पूर्वजन्मविपर्ययाद्दोषस्ततोप्यधर्मस्तस्मादिह जन्मनि मिथ्याज्ञानं ततोऽपरो दोषस्ततोप्यधर्मस्तस्मादपरं मिथ्याज्ञानमिति तावदस्य संतानेन प्रवृत्तिर्यावत्तत्त्वज्ञानं साक्षादुत्पद्यते इति मतं; तदा तत्त्वज्ञानकालेऽपि तत्पूर्वानंतरविपर्यासाद्दोषोत्पत्तिस्ततोप्यधर्मस्ततोऽन्यो विपर्यय इति कुतस्तत्त्वज्ञानादनागतविपर्ययादिनिवृत्तिः ? वितथाग्रहरागादिप्रादुर्भावनशक्तिभृत्। मौलो विपर्ययो नात्य इति केचित्प्रपेदिरे // 101 // मौल एव विपर्ययो वितथाग्रहरागादिप्रादुर्भावनशक्तिं बिभ्राणो मिथ्याभिनिवेशात्मकं दोषं जनयति, स चाधर्ममधर्मश जन्म तच्च दुःखात्मकं संसारं; न पुनरंत्यः क्रमादपकृष्यमाणतजननशक्तिकविपर्ययादुत्पन्नस्तजननशक्तिरहितोऽपि, यतस्तत्त्वज्ञानकाले मिथ्याभिनिवेशात्मकदोषोत्पत्तिस्ततोप्यधर्मादिरुत्पद्यतेति केचित्संप्रतिपन्नाः। __यदि पुनः पूर्वजन्म के विपरीत ज्ञान से रागद्वेष उत्पन्न होते हैं, रागद्वेष से आत्मा में पुण्य-पाप रूप अदृष्ट की उत्पत्ति होती है तो उस अदृष्ट के कारण इस जन्म में मिथ्याज्ञान होता है, उम मिथ्याज्ञान से दूसरे दोष उत्पन्न होते हैं। दोषों से फिर अधर्म (पाप) होता है और पाप से फिर मिथ्याज्ञान होता है। इस प्रकार उस तत्त्वज्ञानी के सन्तानरूप से तब तक मिथ्याज्ञान की प्रवृत्ति होती रहेगी जब तक सर्व पदार्थों का साक्षात्कारी तत्त्वज्ञान उत्पन्न होगा। अर्थात् जब तक तत्त्वज्ञान उत्पन्न नहीं होगा तब तक मिथ्याज्ञान की धारा चलती रहेगी, नैयायिक के ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो तत्त्वज्ञान के समय में भी कार्य-कारण भाव से चले आये अव्यवहित पूर्ववर्ती विपर्यय ज्ञान से दोषों की उत्पत्ति और दोषों की उत्पत्ति से अधर्म और अधर्म से विपर्यय ज्ञान होगा। अतः तत्त्वज्ञान से अनागत (भविष्य) काल में होने वाले विपर्यय ज्ञान आदि की निवृत्ति कैसे हो सकेगी? - कोई.नैयायिक ऐसा समझते हैं कि मूलभूत विपर्यय ज्ञान तो वितथ आग्रह (झूठा कदाग्रह) रागद्वेष आदि के उत्पन्न कराने वाली शक्ति का धारक है परन्तु अन्त में होने वाला विपर्यय ज्ञान दोषों का उत्पादक नहीं है॥१०१॥ मूल में उत्पन्न हुआ विपर्यय ज्ञान ही असत्य अभिनिवेश, राग, पाप आदि को उत्पन्न कराने की शक्ति को धारण करता हुआ मिथ्याभिनिवेशात्मक दोषों को उत्पन्न करता है और दोष अधर्म को उत्पन्न करते हैं तथा अधर्म जन्म को उत्पन्न करता है। जन्म से अनेक दुःखों की परम्परा रूप संसार उत्पन्न होता है। परन्तु शक्तिहीन हुआ अन्त का विपर्यय ज्ञान राग आदि परम्परा को चलाने में समर्थ नहीं होता है क्योंकि क्रम से अपकृष्यमाण हो गई है दोषों को उत्पन्न करने की शक्ति जिसकी ऐसे विपरीत ज्ञान से उत्पन्न हुआ अन्त का विपर्यास उस विपर्यय ज्ञान को उत्पन्न कराने की शक्ति से रहित है, जिससे तत्त्वज्ञान के समय में असत्य आग्रह रूप दोषों की उत्पत्ति और उससे अधर्म तथा अधर्म से जन्म आदि उत्पन्न होंगे, इस प्रकार कथन कर सके। अर्थात् अन्त के विपर्यास में दोष उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है। ऐसा कोई नैयायिक आदि विश्वास करते