________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 341 तथा विपर्ययज्ञानासंयमात्मा विबुध्यताम्। भवहेतुरतत्त्वार्थश्रद्धाशक्तिस्त्रयात्मकः // 104 / / यावेव विपर्ययासंयमौ वितथार्थश्रद्धानशक्तियुतौ मौलौ तावेव भवसंतानप्रादुर्भावनसमर्थी नांत्यो प्रक्षीणशक्तिकाविति ब्रुवाणानामपि भवहेतुः त्रयात्मकस्तथैव प्रत्येतव्यो विशेषाभावात् / इत्यविवादेन संसारकारणत्रित्वसिद्धेर्न संसारकारणत्रित्वानुपपत्तिः। युक्तितश्च भवहेतोस्त्रयात्मकत्वं साधयन्नाह; मिथ्यादृगादिहेतुः स्यात्संसारस्तदपक्षये। क्षीयमाणत्वतो वातविकारादिजरोगवत् // 105 // यो यदपक्षये क्षीयमाणः स तद्धेतुर्यथा वातविकाराद्यपक्षीयमाणो वातविकारादिजो रोगः / मिथ्या ज्ञान और असंयम भी मिथ्या श्रद्धान संयुक्त हैं विपर्ययज्ञान और असंयम रूप दो को संसार का मार्ग मानने वालों के द्वारा भी संसार का कारण अतत्त्व अर्थों की श्रद्धा रूप शक्तियुक्त दो को कारण मानने से तीन शक्ति स्वरूप ही संसार का कारण माना गया, जानना चाहिए // 104 // . जो अर्थों के विपर्यय और असंयम ये दो असत्य श्रद्धान करने की शक्ति से सहित संसार के मूल कारण माने गये हैं, वे दोनों ही जब मिथ्य' श्रद्धान की शक्ति से युक्त होते हैं, तब तो संसार की संतान को भविष्य में उत्पन्न कराने में समर्थ हैं, किन्तु जब उनकी शक्ति क्रम से घटती-घटती सर्वथा नष्ट हो जाती है, तब अंत के विपर्यय और असंयम पुनः संसार-दुःख, पाप आदि की धारा को चलाने में समर्थ नहीं हैं। इस प्रकार कहने वाले बौद्धों के भी संसार का कारण उसी प्रकार तीन रूप निर्णय कर लेना चाहिए। क्योंकि मिथ्या श्रद्धान युक्त विपरीत ज्ञान और असंयम को तथा मिथ्या दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीन को संसार का कारण कहने में कोई अन्तर नहीं है। इस प्रकार बिना विवाद संसार के कारणों को तीनपना सिद्ध हो जाता है। अतः मोक्षमार्ग के समान संसार-कारण के भी तीनपना असिद्ध नहीं है। युक्तियों से भी संसार के कारणों को तीन रूप सिद्ध करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं संसार (पक्ष) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन तीन हेतुओं का कार्य है। (साध्य) क्योंकि उन मिथ्यादर्शन आदि का क्रम-क्रम से क्षय होने पर संसार भी क्रम-क्रम से क्षीण हो जाता है। (हेतु) जैसे- वात, पित्त, कफ आदि विकारों से उत्पन्न रोग अपने निदानों के क्षय हो जाने से क्षीण हो जाते हैं (अन्वय दृष्टान्त) // 105 // . जिसके क्रम से क्षीण होने पर जो क्षय को प्राप्त होता है, वह उसका कारण समझा जाता है। जैसे वायु के विकार, पित्त के प्रकोप आदि कारणों का क्षय हो जाने से वात-पित्त के प्रकोप से उत्पन्न -- रोग नष्ट हो जाते हैं। मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र के पूर्णरीत्या क्षय हो जाने पर संसार नष्ट होता है।