________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३४६ तत एवाविरतिशब्देनासंयमसामान्यवाचिना बंधहेतोरसंयमस्योपदेशघटनात् / सम्यग्दृष्टेरपि कस्यचिद्विषभक्षणादिजनितदुःखफलस्य हीनस्थानपरिग्रहस्य संसारस्य दर्शनान्मिथ्यादर्शनज्ञानयोरपक्षये क्षीयमाणत्वाभावान्न कथंचिदुःखफलत्वं मिथ्यादर्शनज्ञानापक्षये क्षीयमाणत्वेन व्याप्तमिति चेन्न, तस्याप्यनागतानंतानंतसंसारस्य प्रक्षयसिद्धेः साध्यांत:पातित्वेन व्यभिचारस्य तेनासंभवात् / निदर्शनं परप्रसिद्ध्या विषमविषभक्षणातिभोजनादिकमुक्तं / तत्र परस्य साध्यव्याप्तसाधने विवादाभावात्। न हि विषमविषभक्षणेऽतिभोजनादौ वा दुःखफलत्वमसिद्धं, नाऽपि नाचरणीयमेतत्सुखार्थिनेति सत्यज्ञानोत्पत्ती उत्तर - इस प्रकार कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि उन दोनों भावों का अन्तरंग कारण चारित्र मोहनीय है। इस कर्म के उदय होने पर उत्पन्न अचारित्र और मिथ्याचारित्र की एकरूपपने से विवक्षा है। अतः संसार के कारणों को चारपना सिद्ध नहीं है। अतः मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को बंध का हेतु बताते हुए आचार्यदेव का सामान्य रूप से अविरति शब्द से दोनों प्रकार के असंयमों का उपदेश देना संघटित हो जाता है। भावार्थ- सम्यक्चारित्र न होने की अपेक्षा दोनों असंयम एक हैं। किन्तु नञ् का अर्थ पर्युदास और प्रसज्य करने पर दर्शनमोहनीय के उदय से सहित अचारित्र को मिथ्याचारित्र कहते हैं और दर्शन मोहनीय के उदय न होने पर अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण के उदय से होने वाले असंयम को अचारित्र कहते हैं, मिथ्याचारित्र नहीं। शंका - किसी सम्यग्दृष्टि जीव को भी विषभक्षण आदि से उत्पन्न अनेक प्रकार के दुःख हैं फल जिसके, ऐसे हीन स्थान नारकशरीर आदि के ग्रहण करने रूप संसार होना देखा जाता है। अत: मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान के क्षय होने पर भी संसार के क्षय का अभाव होने से दुःखफलत्व हेतु की मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान के अपक्षय होने पर क्षीयमाणत्व रूप साध्य के साथ व्याप्ति (अविनाभाव होना) कैसे भी सिद्ध नहीं है। उत्तर - ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि उस सम्यग्दृष्टि के भी भविष्य में होने वाले अनन्तानन्त निकृष्ट स्थानों में जन्म-मरणों को धारण करने रूप संसार का प्रक्षय होना सिद्ध है। सम्यग्दृष्टि जीव भले ही शस्त्राघात या आत्मघात से कतिपय निकृष्ट शरीरों को धारण कर लेवे फिर भी विषभक्षण, आत्मघात आदि का क्षय होकर संसार का ह्रास होते हुए संख्यात भवों में उसका मोक्ष होना अनिवार्य है। अतः आपका दिया हुआ व्यभिचार का स्थल प्रतिज्ञावाक्य में प्रविष्ट होने से उस हेतु के व्यभिचारीपना असंभव है प्रतिवादी के घर की प्रसिद्धि के अनुसार पूर्व अनुमान में तीक्ष्ण विषका खाना या भूख से अति अधिक खाना आदि दृष्टांत दिये हैं, क्योंकि नैयायिक आदि भी अधिक भोजन, विषभक्षण आदि में परम्परा से होने वाले दुःखफलत्व हेतु की क्षीयमाणत्व साध्य के साथ व्याप्ति के साधन में विवाद का अभाव कहते हैं क्योंकि विषभक्षण और अति भोजन आदि में दुःखफलत्व असिद्ध भी नहीं है। अत: सुख के अभिलाषी ज्ञानी जीव को ये विषभक्षण आदि आचरण नहीं करने चाहिए। इस प्रकार सत्यज्ञान