________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 344 संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वमपि न साधनस्य शंकनीय; सम्यग्दर्शनोत्पत्तावसंयतसम्यग्दृष्टे मिथ्यादर्शनस्यापक्षये मिथ्याज्ञानानुत्पत्तेस्तत्पूर्वक - मिथ्याचारित्राभावात्तनिबंधनसंसारस्यापक्षयप्रसिद्धः। अन्यथा मिथ्यादर्शनादित्रयापक्षयेपि तदपक्षयाघटनात् / न च सम्यग्दृष्टेर्मिथ्याचारित्राभावात्संयतत्वमेव स्यान पुनः कदाचिदसंयतत्वमित्यारेका युक्ता, चारित्रमोहोदये सति सम्यक्चारित्रस्यानुपपत्तेरसंयतत्वोपपत्तेः / कात्य॑तो देशतो वा न संयमो नापि मिथ्यासंयम इति व्याहतमपि न भवति, मिथ्यागमपूर्वकस्य संयमस्य पंचाग्निसाधनादेर्मिथ्यासंयमत्वात् सम्यगागमपूर्वकस्य सम्यक्संयमत्वात्। व्यभिचारी है) ऐसी भी शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि सम्यग्दर्शन के उत्पन्न हो जाने पर चतुर्थ गुणस्थान वाले असंयत सम्यग्दृष्टि जीव के मिथ्यादर्शन का हास हो जाने पर मिथ्याजान की उत्पत्ति नहीं होती है। अत: उन मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान को पूर्ववर्ती कारण मानकर होने वाले मिथ्याचारित्र का भी अभाव हो जाता है। अतः तीन कारण से उत्पन्न हुए संसार का भी ह्रास होना प्रसिद्ध है। यदि ऐसा न मानकर दूसरे प्रकारों से माना जाता है तो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन तीन की हानि होते हुए भी उस संसार का क्रमहास होना नहीं बन सकता। अत: मिथ्यादर्शन आदि तीन के साथ संसार का कार्य-कारण भाव होना ही हेतु की प्रयोजकता है। अपक्षय का अर्थ है धीरे-धीरे नाश होतेहोते पूरे नाश के लिए अभिमुख हो जाना। शंका - सम्यग्दृष्टि जीव के चौथे गुणस्थान में मिथ्याचारित्र के न रहने से संयमीपना हो जायेगा। फिर कभी चौथे गुणस्थान वाले को असंयतपना नहीं होना चाहिए। समाधान- आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार शंका करना युक्त नहीं है। क्योंकि चौथे, पाँचवें गुणस्थान में चारित्र गुण (संयम) का घात करने वाले अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण का उदय होने से सम्यक् चारित्र गुण उत्पन्न नहीं हो सकता है। अर्थात् चतुर्थ गुणस्थान में इन्द्रिय-संयम और प्राणी-संयम रूप विरति न होने से असंयतपने की उत्पत्ति है। और पाँचवें में सांकल्पिक त्रसवध का त्याग हो जाने से तथा स्थावर वध का त्याग न होने से देशसंयतपना है। परन्तु चतुर्थ गुणस्थान में छठे के समान पूर्ण रूप से संयम नहीं है और पाँचवें के समान एकदेश से भी संयम नहीं है तथा पहले गुणस्थान के समान मिथ्यासंयम भी नहीं है। तथा इस प्रकार इन तीनों का निषेध करने से व्याघात दोष भी नहीं होता है। मिथ्यागम के अभ्यासपूर्वक कुभेषी, कुलिंगी जिन संयमों को पालते हैं, वे मिथ्यासंयम हैं। जैसे कि चारों दिशाओं में आग जलाकर ऊपर से सूर्यकिरणों द्वारा संतप्त होकर पंच अग्नि तप करना, वृक्ष पर उलटे लटक जाना, जीवित ही गंगा में प्रवाहित हो जाना आदि, मिथ्याचारिः हैं। और समीचीन सर्वज्ञोक्त आगम का अभ्यास कर उसके अनुसार अट्ठाईस मूलगुणों को धारण करना, अन्तरंग तपों को बढ़ाना आदि जैन ऋषियों के समीचीन