Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 01
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 371
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 338 तथा सति कुतो ज्ञानी वीतदोषः पुमान्परः / तत्त्वोपदेशसंतानहेतुः स्याद्भवदादिषु // 10 // पूर्वोपात्तदोषादिस्थितौ च तत्त्वोपदेशसंप्रदायाविच्छेदहेतोर्भवदादिषु विनेयेषु सर्वज्ञस्यापि परमपुरुषस्य कुतो वीतदोषत्वं येनाज्ञोपदेशविप्रलंभनशंकिभिस्तदुक्तप्रतिपत्तये प्रेक्षावद्भिर्भवद्भिः स एव मृग्यते। यदि पुनर्न योगिनः पूर्वोपात्तो विपर्ययोऽस्ति नापि दोषस्तस्य क्षणिकत्वेन स्वकार्यमदृष्टं निर्वर्त्य निवृत्तेः, किं त_दृष्टमेव तत्कृतमास्ते तस्याक्षणिकत्वादंत्येनैव कार्येण विरोधित्वात्तत्कार्यस्य च जन्मफलानुभवनस्योपभोगेनैव निवृत्तेस्ततः पूर्वं तस्यावस्थितिरिति मतं; तदा तत्त्वज्ञानोत्पत्तेः प्राक्तस्मिन्नेव जन्मनि विपर्ययो न स्यात्पूर्वजन्मन्येव तस्य निवृत्तत्वात्, पूर्वोपार्जित कर्म के उदय से तत्त्वज्ञानी के दोषों की सम्भावना होने पर वह ज्ञानी (तत्त्वज्ञानी) आत्मा दोषरहित कैसे हो सकती है। तथा नैयायिक, वैशेषिक आदिकों में तत्त्व-उपदेश के सन्तान (परम्परा) का कारण भी कैसे हो सकती है।॥१००॥ तत्त्वज्ञानी के पूर्वजन्म में ग्रहण किये गये राग-द्वेष आदि दोष तथा उनसे उत्पन्न पाप दुःख आदि की स्थिति रहने पर तत्त्वोपदेश की परम्परा के अविच्छेद के कारणभूत नैयायिक आदि विनेयों में (नैयायिक, वैशेषिक आदि में) सर्वज्ञ परम पुरुष के दोषरहितपना कैसे सिद्ध हो सकता है? जिससे अज्ञ सदोष के उपदेश से धोखा हो जाने से शंकित एवं विचारशील आप लोगों के द्वारा उस संशय का निराकरण करने के लिए- अथवा उस अज्ञ परुष के द्वारा कथित तत्त्व का ज्ञान करने के लिए निर्दोष पुरुष का ही अन्वेषण किया जा रहा है। अर्थात् कोई भी विचारशील मानव सदोष और भ्रान्त ज्ञान कराने वाले पुरुषों को तत्त्वोपदेश की अक्षुण्ण आम्नाय का कारण नहीं मानते हैं। नैयायिक का कथन है- तत्त्वज्ञानी योगी के पूर्वोपार्जित विपर्यय ज्ञान नहीं है और न विपर्यय ज्ञानजन्य रागादि दोष और दुःख शोकादि का भी अस्तित्व है। क्योंकि विपर्यय ज्ञान के क्षणिक होने से वे दोष अदृष्ट (पाप रूप) स्वकार्य को करके शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। शंका - उस योगी के शेष क्या रहता है? उत्तर - पूर्व में योगी द्वारा कृत पुण्य-पाप ही आत्मा में अवस्थित रहता है। क्योंकि वह अदृष्ट (पुण्य-पाप) क्षणिक नहीं है। पूर्व संचित अदृष्ट का अपना अन्तिम कार्य किये बिना (फल दिये बिना नष्ट होमे) का विरोध है। __ अतः योगी के भी पूर्वसंचित कर्मों से उत्पन्न जन्म लेकर फल भोगने रूप कार्य के उपभोग से ही (उपभोग कराकर के ही) अदृष्ट की निवृत्ति होती है। अतः तत्त्वज्ञान हो जाने पर भी जब तक वर्तमान मनुष्य जन्म रहता है, तब तक पूर्वोपार्जित कर्म के कारण योगी की स्थिति बनी रहती है और वे शरीर-वचनधारी, निर्दोष, सर्वज्ञ होकर विनय करने वाले जीवों के लिए तत्त्व का उपदेश करते हैं। ऐसा नैयायिकों के कहने पर आचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति के पूर्व भी इस जन्म में ही विपर्यय ज्ञान नहीं रह सकेगा। क्योंकि वह विपर्यय ज्ञान तो पूर्व जन्म में ही निवृत्त हो जाता है। और विपर्यय ज्ञान के अभाव के समान रागादि दोषों की भी निवृत्ति का प्रसंग आयेगा। अतः पूर्वजन्मकृत अदृष्ट के कारण योगी संसार में रहते हैं- ऐसा कहना ठीक नहीं है- क्योंकि यह कथन प्रतीति से विरुद्ध है।

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