________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 336 संसारकारणत्रित्वासिद्धेर्निर्वाणकारणे / त्रित्वं नैवोपपद्यतेत्यचोद्यं न्यायदर्शिनः // 96 / / आद्यसूत्रस्य सामर्थ्याद्भवहेतोस्त्रयात्मनः। सूचितस्य प्रमाणेन बाधनानवतारतः // 17 // सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' इत्याद्यसूत्रसामर्थ्यात् मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणि संसारमार्ग * इति सिद्धेः सिद्धमेव संसारकारणत्रित्वं, बाधकप्रमाणाभावात्ततो न संसारकारणत्रित्वासिद्धेर्निर्वाणकारणत्रित्वानुपपत्तिचोदना कस्यचिन्न्यायदर्शितामावेदयति / विपर्ययमात्रमेव विपर्ययावैराग्यमात्रमेव वा संसारकारणमिति व्यवस्थापयितुमशक्तेन संसारकारणत्रित्वस्य बाधास्ति। तथाहि मौलो हेतुर्भवस्येष्टो येषां तावद्विपर्ययः। तेषामुद्भुतबोधस्य घटते न भवस्थितिः॥१८॥ संसार के भी तीन कारण हैं संसार के कारणों के तीनपना असिद्ध होने से मोक्ष के भी तीन कारणत्व नहीं हो सकते, इस प्रकार की शंका न्यायदर्शियों को नहीं करनी चाहिए क्योंकि आदिसूत्र (सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः). के सामर्थ्य से इस प्रकार की सूचना हो जाती है कि संसार के भी तीन कारण हैं- अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र' ये तीन मोक्ष के कारण हैं- इससे विपरीत तीन संसार के कारण हैं, इस बात को सूचित करने वाले आदिसूत्र के बाधक किसी प्रमाण का अवतार नहीं है।९६-९७॥ ___ 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता मोक्षमार्ग है' इस आदिसूत्र के सामर्थ्य से मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसार के मार्ग हैं, यह सिद्ध हो जाने से संसार के तीन कारण हैं, यह सिद्ध हो ही जाता है। इसमें बाधक प्रमाण का अभाव है इसलिए संसारकारण के त्रित्व (तीनपना) असिद्ध होने से मोक्षमार्ग के त्रित्व (सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनपने) की अनुपपत्ति है (तीनपना नहीं बन सकता) ऐसा कहने वालों के न्यायदर्शिता (न्याय को जानना पना) प्रगट नहीं हो रही है। अर्थात् संसार के तीन कारणों को नहीं मानने वाले नैयायिक वास्तव में नैयायिक नहीं हैं। “अकेला विपर्यय ज्ञान ही अथवा मिथ्याज्ञान और अवैराग्य भाव (रागभाव) ये दो ही संसार के कारण हैं" इस प्रकार की व्यवस्थापना करना अशक्य होने से संसार के कारणों में तीनपने में कोई बाधा नहीं है। मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्र तीनों ही संसार के कारण हैं- इसी बात को स्पष्ट करते हैंमात्र मिथ्याज्ञान संसार का कारण नहीं जिन (नैयायिक, सांख्य और वैशेषिक) के मत में संसार का मूल कारण विपर्यय (मिथ्याज्ञान वा अविद्या) इष्ट है; उनके मत में तत्त्वज्ञान के प्रगट हो जाने पर उस ज्ञानी जीव के संसार में स्थित रहना घटित नहीं हो सकता अर्थात् तत्त्वज्ञान के द्वारा विपर्यय ज्ञान का नाश होते ही मुक्ति की प्राप्ति हो जायेगी॥९८॥ 1. आत्मा को छोड़कर रत्नत्रय अन्यत्र नहीं पाया जाता है।