________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३२० नन्वेवमुत्तरस्यापि लाभे पूर्वस्य भाज्यता। प्राप्ता ततो न तेषां स्यात्सह निर्वाणहेतुता // 68 // न हि पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरमुत्तरस्य तु लाभे नियतः पूर्वलाभ इति युक्तं, तविरुद्धधर्माध्यासस्याविशेषात्, उत्तरस्यापि लाभे पूर्वस्य भाज्यताप्राप्तेरित्यस्याभिमननम्। . . तन्नोपादेयसंभूतेरुपादानास्तितागतेः। कटादिकार्यसंभूतेस्तदुपादानसत्त्ववत् // 69 // उपादेयं हि चारित्रं पूर्वज्ञानस्य वीक्षते / तद्भावभावितादृष्टेस्तद्वज्ज्ञानदृशोर्मतम् / / 70 / / न हि तद्भावभावितायां दृष्टायामपि कस्यचित्तदुपादेयता नास्तीति युक्तं, कटादिवत् सर्वस्यापि वीरणाद्युपादेयत्वाभावानुषक्तेः / न चोपादेयसंभूतिरुपादानास्तितां न गमयति उत्तर के लाभ में पूर्व लाभ नियत है प्रश्न - (शंका) जिस प्रकार पूर्व के लाभ होने पर उत्तर भजनीय है उसी प्रकार उत्तर (चारित्र) के लाभ होने पर भी पूर्व दर्शन, ज्ञान भजनीयता को प्राप्त होते हैं अतः उन सब की एकता निर्वाण (मुक्ति) का कारण नहीं है।६८॥ जैसे पूर्वकथित सम्यग्दर्शनादि के प्राप्त होने पर भी उत्तर-ज्ञान, चारित्र भजनीय होता है, अर्थात् सम्यग्दर्शन होने पर ज्ञान और चारित्र होता ही है ऐसा नियम नहीं है, उसी प्रकार उत्तर (चारित्र) के लाभ में पूर्व (सम्यग्दर्शनादि) नियत है (निश्चय से होते ही हैं) ऐसा कहना युक्त नहीं है क्योंकि विरुद्ध धर्माध्यास की अविशेषता होने से (चारित्र के साथ सम्यग्दर्शनादि के लक्षण भेद है ही) उत्तर के लाभ में पूर्व का लाभ भाज्यता को ही प्राप्त होता है- इस प्रकार जिन का मत है- उनको आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा कहना ठीक नहीं। क्योंकि चटाई आदि कार्य की उत्पत्ति से जैसे चटाई के उपादानभूत वीरणादि (चटाई के उत्पादक कारणों) का सत्त्व रहता है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि के भी उपादेयभूत चारित्र आदि की उत्पत्ति से उपादानभूत सम्यग्दर्शनादि का अस्तित्व सिद्ध होता ही है। ज्ञान के होने पर ही चारित्र के होने से पूर्व ज्ञान का उपादेय चारित्र कहा जाता है- जैसे दर्शन का उपादेय ज्ञान (अर्थात् ज्ञान उपादान है, चारित्र उपादेय है- दर्शन, ज्ञान उपादान हैं चारित्र उपादेय है) वह चारित्र रूप उपादेय उपादान रूप दर्शन, ज्ञान के अस्तित्व को सूचित करता है अतः उत्तर के लाभ में पूर्व लाभ नियत है।।६९-७०॥ चटाई आदि के समान सभी के वीरणा आदि उपादेयत्व के अभाव का प्रसंग आने से उसके भाव-भाविता (जिसके होने पर हो) के दृष्टिगोचर होने पर भी 'किसी के भी उपादेयता नहीं है' ऐसा कहना उचित नहीं है तथा उपादेय की उत्पत्ति उपादान के अस्तित्व को सूचित नहीं करती है, ऐसा भी नहीं है, क्योंकि ऐसा मान लेने पर चटाई आदि की उत्पत्ति में वीरणादि के अस्तित्व के अभाव का