________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 266 स्वसमानकालवर्तिन्या: कारणकार्यमेकसामग्र्यधीनत्वादिति चेत्, किमिंद्रजालमभ्यस्तमनेन सूर्यादिग्रहणाकारभेदेन, यतोऽयमतीतानागतवर्तमानाखिलांकमाला: स्वयं निवर्तयेत्। कथं वा क्रमाक्रमभाव्यनंतकार्याणि नित्यैकस्वभावो भावः स्वयं न कुर्यात्, ततो विशेषाभावात् / भवन् वा स तस्याः कारणं, उपादानं सहकारि वा? न तावदुपादानं खटिकादिकृतायास्तदुपादानत्वात् / नापि सहकारिकारणमुपादानसमकालत्वाभावात् / यथोपादानभिन्नदेशं सहकारिकारणं तथोपादानभिन्नकालमपि दृष्टत्वादिति चेत् / किमेवं कस्य सहकारि न स्यात्। पितामहादेरपि हि जनकत्वमनिवार्य विरोधाभावात् / ततो नांकमाला सूर्या दिग्रहणाकारभेदे साध्ये लिंगं स्वभावकार्यत्वाभावात् / तदस्वभावकार्यत्वेऽपि तदविनाभावात्सा तत्र लिंगमित्यपरे। तेषामपि कारण है। तथा सामान्य काल में होने वाली किसी अन्य अंकमाला का वर्तमान कारण है। भिन्न कालवी वह आकारभेद उसी एक सामग्री के आधीन है जिसके आधीन होकर अंकमाला उत्पन्न होती है। ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि- क्या इस सूर्य आदिक के ग्रहणभेद ने इन्द्रजाल का अभ्यास किया है कि जिससे यह भूतकाल और वर्तमान काल की होने वाली सम्पूर्ण संख्या अक्षरों की लिपियों को अपने आप बना देता है। . ... __ अथवा- क्रम और अक्रम से होने वाले अनन्त कार्य नित्य एक स्वभाव भाव वाले स्वयं क्यों नहीं हो सकते हैं। इस सिद्धान्त से तो कापिलों के नित्यत्व के मंतव्य में कोई अन्तर नहीं है। अथवा- सूर्यादि ग्रहण का आकार भेद उस अंकमाला का उपादान कारण है कि सहकारी कारण है? सूर्यादि ग्रहण का आकार भेद अंकमाला का उपादान कारण तो हो नहीं सकता? क्योंकि अंकमाला का उपादान कारण खटिकादि से निर्मित पैंसिल आदि है। क्योंकि वह पैंसिल ही पट्टी पर संख्या अक्षर रूप से परिणत होती है। सूर्यग्रहण का आकार आदि भेद अंकमाला का सहकारी कारण भी नहीं है। क्योंकि उपादान कारण के काल में रहकर कार्य करने में निमित्त होने वाले को सहकारी कारण कहते हैं। परन्तु- अंकमाला के लिखने के समय ग्रहण के आकार भेद के उत्पन्न होने का अभाव है। जैसे उपादान का भिन्न देश, सहकारी कारण देखा जाता है वैसे उपादान का भिन्न काल भी कार्य का सहकारी कारण देखा जाता है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर कोई किसी का सहकारी कारण नहीं हो सकेगा। पितामह (दादा) आदि के भी पौत्र का जनकत्व अनिवार्य होगा। अर्थात् उपादान काल से भिन्न स्थित को सहकारी कारण मानने पर पौत्र की उत्पत्ति का कारण प्रपितामह वा पितामह भी हो सकेंगे। इसमें विरोध का अभाव होगा। इसलिए अंकमाला सूर्यादि ग्रहण के आकारभेद को साध्य करने में लिंग नहीं है (ज्ञापक हेतु नहीं है)। क्योंकि सूर्यादि ग्रहण के आकार भेद साध्य का अंकमाला स्वभाव नहीं है और कार्य भी नहीं है। वैशेषिक कहता है कि यद्यपि अंकमाला सूर्यादि ग्रहण के आकार भेद साध्य में स्वभाव हेतु और कार्य हेतु नहीं है। फिर भी सूर्यादि ग्रहणों के आकार भेद साध्य के साथ अंकमाला का अविनाभाव सम्बन्ध है, अतः अंकमाला सूर्यादि ग्रहणों के आकार भेद में ज्ञापक हेतु है। जैनाचार्य कहते हैं- कि