________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 312 प्रादुर्भवत इति शक्यं वक्तुं, प्रमाणाभावात् / तजन्मनि मोक्षार्हस्य कुतशिदनुष्ठानाद्धर्माधर्मी तज्जन्मफलदानसमर्थौ प्रादुर्भवतः, तजन्ममोक्षार्हधर्माधर्मत्वादित्यप्ययुक्तं हेतोरन्यथानुपपत्त्यभावात्। यौ जन्मांतरफलदानसमर्थौ तौ न तजन्ममोक्षार्हधर्माधर्मों, यथास्मदादि धर्माधर्मों इत्यस्त्येव साध्याभावे साधनस्यानुपपत्तिरिति चेत्, स्यादेवं, यदि तजन्ममोक्षार्ह धर्माधर्मत्वं जन्मांतरफलदानसमर्थत्वेन विरुध्येत, नान्यथा। तस्य तेनाविरोधे तज्जन्मनि मोक्षार्हस्यापि मोक्षाभावप्रसंगाद्विरुध्यत एवेति चेत् न, तस्य जन्मांतरेषु फलदानसमर्थयोरपि धर्माधर्मयोरुपक्रमविशेषात् / फलोपभोगेन प्रक्षये मोक्षोपपत्तेः / यदि पुनर्न यथाकालं तजन्ममोक्षार्हस्य धर्माधर्मी तजन्मनि फलदानसमर्थौ साध्येते, किं तर्युपक्रमविशेषादेव संचितकर्मणां फलोपभोगेन प्रक्षय? इति पक्षांतरमायातम् / विशिष्टोपक्रमादेव मतभेत्सोऽपि तत्त्वतः। समाधिरेव संभाव्यश्चारित्रात्मेति नो मतम॥५२॥ ___ इस जन्म में मोक्ष के योग्य तत्त्वज्ञानी के किसी अनुष्ठान आदि से इसी जन्म में फल देने योग्य (फल देने में समर्थ) कर्म बंधते हैं, इस जन्म के योग्य धर्म और अधर्म (पुण्यपाप) होने से; ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि इस जन्म के योग्य ही पुण्यपाप हैं, इस हेतु में अन्यथा अनुपपत्ति का अभाव है। 'जो जन्मान्तर में फल देने में समर्थ पुण्य-पाप हैं, वे इस भव में मोक्ष जाने वाले के नहीं बँधते, जैसे हम लोगों के बँधने वाले पुण्य-पाप, इस प्रकार साध्य के अभाव में साधन की अनुपपत्ति होने से अन्यथा अनुपपत्ति है ही। अर्थात् जिस प्रकार हम लोगों के पुण्यपाप जन्मान्तर में साथ जाते हैं वैसे पुण्य-पाप उस भव में मोक्ष जाने वाले के नहीं हैं।' ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि यदि उसी जन्म में मोक्ष के योग्य धर्म और अधर्मत्व हो तो जन्मान्तर में फल देने के समर्थत्व से विरोधी होते हैं-"जो पुण्य-पाप इसी भव में मोक्ष जाने वाले के योग्य हो तो कह सकते हो कि यह पुण्य पाप दूसरे भव में साथ जाने योग्य नहीं है" उसी भव में फल देने योग्य पुण्य-पाप है और उनका फल देकर नष्ट होना संभव तो कह सकते हो, अन्यथा नहीं। उसी जन्म में मोक्ष प्राप्त करने वाले जीव के उन पुण्य-पापों का दूसरे जन्म में फल देने की योग्यता का अविरोध (विरोध नहीं) होता तो उसी जन्म में मोक्ष प्राप्त करने योग्य जीव के भी मोक्ष होने के अभाव का प्रसंग आता। इसलिए तद्भव मोक्षगामी जीव के धर्म और अधर्म (पुण्य और पाप कर्म) का दूसरे भव में फल देने का अवश्य ही विरोध है, ऐसा भी कहना उचित नहीं है। क्योंकि जीव के जन्मान्तरों में फल देने में समर्थ ऐसे पुण्य और पाप का विशिष्ट तपश्चरण के द्वारा उपक्रम विशेष से फल देकर नष्ट हो जाने पर मोक्ष की उत्पत्ति होती है। यदि तद्भव मोक्षगामी जीव के पूर्व संचित पुण्य-पाप कर्म उस जन्म में यथाकाल उदय में आकर फल देने में समर्थ नहीं हैं अर्थात् काल पाकर उनकी निर्जरा नहीं हो सकती है, काल पाकर कर्म नष्ट होते हैं- ऐसा सिद्ध नहीं करते हैं तब तो उपक्रम विशेष (तपश्चरण) के द्वारा ही संचित कर्मों का फल देकर नष्ट होना यह दूसरा पक्ष सिद्ध होता ही है। तप से ही कर्मनिर्जरा होती है यदि विशिष्ट उपक्रम से कर्म अपना फल देकर नष्ट होते हैं और उससे मुक्ति होती है तो वास्तव में वह विशिष्ट उपक्रम समाधि है और समाधि चारित्र का स्वरूप है, अतः स्याद्वादियों के मत की सिद्धि होती है॥५२॥