________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 311 इत्यन्यैरभिधानात्, विद्यात एवाविद्यासंस्कारादिक्षयानिर्वाणमितीतरैरभ्युपगमात्, फलोपभोगेन संचितकर्मणां प्रक्षयः सम्यग्ज्ञानस्य मुक्त्युत्पत्ती सहकारी ज्ञानामात्रात्मकमोक्षकारणवादिनामिष्टो न पुनरन्योऽसाधारणः कश्चित् / स च फलोपभोगो यथाकालमुपक्रमविशेषाद्वा कर्मणां स्यात्? न तावदाद्यः पक्ष इत्याह; भोक्तुः फलोपभोगो हि यथाकालं यदीष्यते। तदा कर्मक्षयः क्वात: कल्पकोटिशतैरपि // 51 // न हि तजन्मन्युपात्तयोर्धर्माधर्मयोः जन्मांतरफलदानसमर्थयोर्यथाकालं फलोपभोगेन जन्मांतरादृते कल्पकोटिशतैरप्यात्यंतिकः क्षयः कर्तुं शक्यो, विरोधात् / जन्मांतरे शक्य इति चेन्न, साक्षादुत्पन्नसकलतत्त्वज्ञानस्य जन्मांतरासंभवात् / न च तस्य तजन्मफलदानसमर्थत्वे च धर्माधर्मी के अभाव में दुःखरूप कार्य भी नहीं हो सकता है और दुःख का अत्यन्त नाश होना ही मोक्ष है। इस प्रकार मिथ्याज्ञानादि में साक्षात् कार्य-कारण भाव की उपलब्धि होने से तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता हैऐसा नैयायिकों ने भी प्रतिपादित किया है। 'ज्ञानेनापवर्ग:' ज्ञान से मोक्ष होता है, यह सांख्य का भी मत है। 'विद्यात एवाविद्यासंस्कारादिक्षयानिर्वाणं' / बौद्ध कहता है कि विद्या से अविद्या संस्कार आदि (वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान) का क्षय हो जाना ही मोक्ष है। ज्ञान मात्र को ही मोक्ष का कारण मानने वालों के फल का उपभोग हो जाने से कर्मों का क्षय होना ही मुक्ति की उत्पत्ति में सम्यग्ज्ञान का सहकारी कारण इष्ट है। इस सम्यग्ज्ञान से अन्य कोई भी मुक्ति का असाधारण कारण नहीं है। अर्थात् मीमांसक, नैयायिक, बौद्ध आदि सभी वादियों के मतानुसार तत्त्वज्ञान से मोक्ष होना सिद्ध होता है। इस प्रत्युत्तर में जैनाचार्य प्रश्न करते हैं, ज्ञानमात्र से मोक्षोत्पत्ति मानने वालों से पूछते हैं कि कर्म यथाकाल फल देकर नष्ट होते हैं कि उपक्रम विशेष (प्रव्रज्या, तपादि) से नष्ट होते हैं। इसमें प्रथम पक्ष (यथाकाल फल देकर नष्ट होना) तो उचित नहीं है, सो कहते हैंसविपाक निर्जरा से सम्पूर्ण कर्म क्षय नहीं यदि भोक्ता के कर्म फल देकर ही नष्ट होते हैं ऐसा मानते हो तब तो सैकड़ों, करोड़ों कल्प कालों में भी कर्मों का क्षय किस प्रकार हो सकता है॥५१॥ .. जन्मान्तरों में फल देने में समर्थ इस जन्म में उपार्जित किये हुए पुण्य-पाप रूप कर्मों का जन्मान्तर के बिना यथाकाल फल देकर सैकड़ों करोड़ों कल्प कालों में भी क्षय करना शक्य नहीं हैक्योंकि जन्मान्तर में फल देने वाले का इस जन्म में क्षय मानने में विरोध आता है। "इस जन्म में उपार्जित कर्म का जन्मान्तर में क्षय हो जायेगा" ऐसा कहना भी उचित नहीं है- क्योंकि साक्षात् उत्पन्न सकलतत्त्वज्ञानी के जन्मान्तर की असंभवता है। (तत्त्वज्ञानी के संसारभ्रमण हो नहीं सकता) "इस जन्म में फल देने योग्य पुण्यपाप रूप कर्म ही तत्त्वज्ञानी के उत्पन्न होते हैं", ऐसा कहना भी शक्य नहीं है क्योंकि इस प्रकार के कथन में प्रमाण का अभाव है।