________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 276 सम्यक्चारित्रं निरुक्तिगम्यलक्षणमाह; - भवहेतुप्रहाणाय बहिरभ्यन्तरक्रिया-। विनिवृत्तिः परं सम्यक्वारित्रं ज्ञानिनो मतम् // 3 // विनिवृत्तिः सम्यक्चारित्रमित्युच्यमाने शीर्षापहारादिषु स्वशीर्षादि द्रव्य निवृत्तिः सम्यक्त्वादि स्वगुणनिवृत्तिश्च तन्माभूदिति क्रियाग्रहणम् / बहिःक्रियायाः कायवाग्योगरूपायाः एवाभ्यंतरक्रियाया एव च मनोयोगरूपाया दिनिवृत्तिः सम्यक्चारित्रं माभूदिति क्रियाया बहिरभ्यन्तरविशेषणं / लाभाद्यर्थ तादृशक्रियानिवृत्तिरपि न सम्यक्चारित्रं भवहेतुप्रहाणायेति वचनात् / नापि मिथ्यादृशः सा तद्भवति, ज्ञानिन इति वचनात् / प्रशस्तज्ञानस्य सातिशयज्ञानस्य वा संसारकारणविनिवृत्तिं प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतो बाह्याभ्यन्तरक्रियाविशेषोपरमस्यैव सम्यक्चारित्रत्वप्रकाशनात् अन्यथा तदाभासत्वसिद्धेः। सम्यग्विशेषणादिह ज्ञानाश्रयता भवहेतुप्रहाणता च लभ्यते / चारित्रशब्दाबहिरभ्यन्तरक्रियाविनिवृत्तिता सम्यक्चारित्रस्य सिद्धा, तदभावे तद्भावानुपपत्तेः। सम्यक्चारित्र अब सम्यक्चारित्र का निरुक्तिगम्य लक्षण कहते हैं संसार के कारणों का नाश करने के लिए सम्यग् ज्ञानी की बाह्याभ्यन्तर क्रियाओं की विशेषरूप से / निवृत्ति हो जाना ही सम्यक् चारित्र माना गया है।३।। विनिवृत्ति चारित्र है, ऐसा कहने पर तो शीर्षापहरादि में अपने शिर आदि द्रव्य से निवृत्त होना वा सम्यक्त्वादि अपने गुणों से निवृत्त होना भी सम्यक्चारित्र हो जाता परन्तु वह चारित्रं नहीं है। वह न होवे अतः 'क्रिया' का ग्रहण किया गया है। भावार्थ- क्रियाओं की निवृत्ति चारित्र है, द्रव्य और गुणों की निवृत्ति नहीं। काय और वचन रूप बाह्य क्रिया की, वा मनोयोग रूप अभ्यन्तर क्रिया की निवृत्ति चारित्र नहीं हैअपितु बाह्य और अभ्यन्तर दोनों क्रियाओं की निवृत्ति चारित्र है। इसलिए क्रिया का बाह्याभ्यन्तर यह विशेषण दिया गया है। सांसारिक लाभादि के लिए बाह्य अभ्यन्तर क्रियाओं का निरोध करना भी चारित्र नहीं है अपितु संसार के कारणों का नाश करने के लिए क्रियाओं का निरोध करना चारित्र है। इसलिये 'भवहेतुप्रहाणाय' यह विशेषण है। मिथ्यादृष्टि के क्रियाओं का निरोध चारित्र नहीं होता, सम्यग्ज्ञानी के ही चारित्र होता है इसलिए 'ज्ञानिनः' ज्ञानी के इस शब्द का प्रयोग किया है। प्रशस्त तथा सातिशय ज्ञान वाले, संसार के कारणों की निवृत्ति में तत्पर ज्ञानी के बाह्याभ्यन्तर क्रिया विशेष के उपरम (निरोध) को ही सम्यक्वारित्र कहा गया है अर्थात् संसार के कारणों का नाश करने वाले ज्ञानी के बाह्याभ्यन्तर क्रियाओं का निरोध सम्यक्वारित्र है। अज्ञानी के क्रियाओं का निरोध चारित्राभास है। . सम्यक्चारित्र में 'सम्यक्' इस विशेषण से ज्ञानाश्रयता और भवहेतुप्रहाणता (संसार-कारणों की नाशता) जानी जाती है और चारित्र शब्द से बाह्याभ्यन्तर क्रियाओं का निरोध प्रकट होता है। 'संसार-कारणों का नाश करने के लिए ज्ञानी के बाह्याभ्यन्तर क्रियाओं का निरोध' यह सम्यक्चारित्र का लक्षण है, सम्यक्चारित्र लक्ष्य है। क्योंकि सम्यक्चारित्र की सिद्धि इनके होने पर ही होती है- इनके अभाव में नहीं। 1. चारित्र न होकर के भी जो चारित्र के समान दिखाई देता है, वह चारित्राभास कहलाता है।